भाद्र पद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर
आश्विन कृष्ण अमावस्या तक का समय श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष कहलाता हैं। इस
श्राद्ध पक्ष में अपने पितरों की आत्मा के लिए श्राद्ध कर्म किये जाते हैं। आज इस
लेख में हम श्राद्ध और पितरों से जुडी कुछ विशेष बातों के बारे में जानेंगे।
श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद
शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि
द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मन्त्रों के साथ जो दान-दक्षिणा आदि,
दिया जाय, वही श्राद्ध कहलाता है।
पितर कौन होते है?
श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट
संबंध है। पितरों के बिना श्राद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को
आहार पहुँचाने का माध्यम मात्र है। मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण,
पिण्ड, दानादि किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहा जाता है और
जिस ‘मृत व्यक्ति’ के एक वर्ष तक के
सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो जायें, उसी की ‘पितर’ संज्ञा हो जाती है।
श्राद्ध क्यों करें?
हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता,
दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य
के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि
माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश
करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर
वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं।
श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते
हैं।
श्राद्ध के प्रकार
श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-
नित्य- यह श्राद्ध के दिनों में
मृतक के निधन की तिथि पर किया जाता है।
नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक
उत्सव,
जैसे – पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया
जाता है।
काम्य- यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती
के लिए कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।
श्राद्ध करने को उपयुक्त
साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का
श्राद्ध करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति
विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव रखता है,
उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है।
विद्या की विरासत से भी लाभ पाने
वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में
पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध-कर्म कर सकता है।
नि:सन्तान पत्नी को पति द्वारा,
पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं
दिया जा सकता।
किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा,
जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल
देकर नवश्राद्ध कर सकता। शेष कार्य उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।
श्राद्ध के लिए उचित बातें
श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं-
तिल,
माष (उड़द), चावल, जौ,
जल, मूल, (जड़युक्त
सब्जी) और फल।
तीन चीज़ें शुद्धिकारक हैं –
पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल या कुश।
तीन बातें प्रशंसनीय हैं –
सफ़ाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता))
का न होना।
श्राद्ध में महत्त्वपूर्ण बातें –
अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली
की स्वच्छ्ता, उदारता से भोजन आदि की व्यवस्था और अच्छे
ब्राह्मण की उपस्थिति।
श्राद्ध के लिए अनुचित बातें
कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो
श्राद्ध में नहीं प्रयुक्त होते- मसूर, राजमा,
कोदों, चना, कपित्थ,
अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्रजल से बना नमक।
भैंस, हिरणी, उँटनी, भेड़ और एक
खुरवाले पशु का दूध भी वर्जित है पर भैंस का घी वर्जित नहीं है।
श्राद्ध में दूध,
दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने जाते हैं। श्राद्ध
किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि में कभी नहीं किया जाता
है।
जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व न हो,
सार्वजनिक हो, ऐसी भूमि पर श्राद्ध किया जा
सकता है।