आचार्य
बाबूराम अवस्थी संस्कृत साहित्य जगत की एक ऐसी महनीय विभूति हैं जिन्होंने सीमित
संसाधनों तथा जीवन संघर्षों के झंझावातों के मध्य भी संस्कृत सेवा की दीप्ति को
बंद नहीं होने दिया आचार्य बाबूराम अवस्थी जी का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली तथा
वैदुष्य गत ओजस्विता से मंडित संवेदनशील गुरु गंभीर हो जो मई वाणी से युक्त आचार्य
जी समाज के सभी व्यक्तियों से सरलता पूर्वक व्यवहार करते हुए संस्कृत भाषा के
प्रचार प्रसार के लिए बड़ी से बड़ी शक्ति का सामना करने में भी कभी पीछे नहीं हटे
20 फरवरी 1919 ईस्वी के श्री रामावतार अवस्थी एवं श्रीमती छोटकी देवी के पुत्र
रत्न के रूप में जन्म लेकर संघर्षपूर्ण शैक्षिक जीवन जीते हुए उन्होंने अपनी
बहुआयामी का विसर्जन प्रतिभा का परिचय देते हुए दशा अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया
जिसमें सरल संस्कृत संभाषणम् योग दर्शनम् गीत गंगा लोक गीतांजलि नाटक नाटक कथा
द्वादशी लेखिका ललित लेखमाला सुविचार प्रमुख आचार्य जी की प्रतिभा एवं संस्कृत
सेवा के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा विशिष्ट पुरस्कार सहित
अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मान उपाधि पुरस्कारों से सम्मानित किया गया वैसे तो
आचार्य जी के श्री चरणों में बैठकर अध्ययन करते समय अनेक ऐसे संस्मरण हैं जो मानस
पटल पर अमित हैं परंतु उनमें शब्द में था शब्द मेधा एवं अर्थ संधान का कौशल सदाय
विधि मुझे प्रभावित करता रहा काव्य में प्रयुक्त शब्दों को खोलने की कला में जैसी
दक्षता उन्हें प्राप्त थी वह अद्भुत थी वह शब्दों के मूल में निहित संवेदना तक
अपनी पैठ बना लेते थे तथा अन्य कवियों द्वारा प्रयुक्त लिस्ट से लिस्ट शब्दों का
अर्थ इतनी सरलता से समझा देते थे जिस से स्पष्ट जल में प्रतिबिंबित 26 की भांति
अर्थ हम विद्यार्थियों के मनो मस्तिष्क में ही हो जाता था आचार्य जी सदा यही
समझाते की काव्य मात्र कक्षा में पढ़ने पढ़ाने तक सीमित नहीं बल्कि उसे समझने व
उसका रसास्वादन करने के लिए कविता के एक-एक शब्द को हृदयंगम करना आवश्यक है एक बार
उनकी इसी शब्द संधान प्रतिभा की परीक्षा के लिए किसी व्यक्ति ने पायल वह अब्बास
जैसे शब्दों की संस्कृत व्युत्पत्ति उनसे पूछे आचार्य जी ने अत्यंत असहजता से
स्पष्ट करते हुए कहा आग लगना आचार्य जी एक अच्छे शिक्षक रहे वह शिष्य को काव्य
पढ़ाते समय उसकी व्याख्या पर बल देते थे पर एक टीकाकार के रूप में व्याख्या की एक
आदर्श पद्धति तय करने की बात भी समझाते थे वह निस्वार्थ व्यक्तित्व के धनी थे हम
सभी विद्यार्थियों को ज्ञान प्रदान के बदले कभी कोई धनराशि उन्होंने नहीं ली जब
हमने उनसे शुल्क पूछा तो बोले शुल्क देना है तो हमारी संस्कृत सेना में सम्मिलित
हो जाओ और मेरे साथ संस्कृत के प्रचार प्रसार में सहयोग करें उनकी यह बात आज मुझे
जागृत करती रहती है और संस्कृत सेवा की निशुल्क प्रेरणा देती है यदि मैं अपने
गुरुवर्य की संस्कृत के लिए इच्छा रखें संस्कृता जनभाषा से 8 को पूर्ण करने की
दिशा में सफल हो पाई तो कतिपय अंशों में स्वयं को धन्य समझूंगी डॉक्टर सुरजना
त्रिवेदी
आचार्य
अवस्थी जी ने संस्कृत भाषा के विकास एवं प्रचार प्रसारक समाज के शिक्षा संगीत
अभियांत्रिकी एवं प्रशासनिक क्षेत्रों से जुड़े लोगों का न केवल सहयोग लिया अपितु
संस्कृत के प्रति उनकी निष्ठा जाग्रत करने में भी सफल रहे उन्होंने इसे व्यवस्थित
रुप देने के लिए संस्कृत परिषद जी की स्थापना भी की तथा वर्षों तक संस्था के माध्यम
से लखीमपुर के उप नगरों में विशेष रुप से सामाजिक सांस्कृतिक पर्वों पर अनेक
संभाषण शिविर लोकगीतों नाटकों इत्यादि कार्यक्रमों व प्रतियोगिताओं का आयोजन किया
इतना ही नहीं अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर वह देश के संस्कृत कवि सम्मेलनों में
आशु कवि संचालक के रूप में सम्मिलित होते रहे एवं ख्याति अर्जित की आकाशवाणी एवं
दूरदर्शन पर उनकी वार्ता है काव्यपाठ चर्चाएं निरंतर प्रसारित हुई आचार्य जी ने
संस्कृत में लोक गीत विधा को पुनर्स्थापित करके उसे जन-जन पहुंचाने का सफल कार्य
किया उनके लिखे लोक गीत देवी गीत प्रत्येक संस्कार पर गाए जाने वाले गीत आल्हा गजल
आदि उनकी विलक्षण प्रतिभा के परिचायक है आचार्य जी के अनेक संस्कार गीतों वह
लोकगीतों का उल्लेख अभिराज राजेंद्र मिश्र ने अपने काव्य शास्त्रीय लक्षण ग्रंथ
अभिराज यशु भूषणम् के में किया है आचार्य जी अत्यंत विनयशील एवं दृढ़ इच्छाशक्ति
के धनी थे मुझे भली-भांति स्मरण है कि जब मैं लगभग 11 वर्ष की थी तो आचार्य जी को
घर घर जाकर छात्र छात्राओं को संस्कृत भाषा के महत्व को समझाते हुए देखा आचार्य जी
ने संस्कृत को सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हुए समाज के कुछ संभ्रांत वह
कर्मठ लोगों के साथ मिलकर सन 1980 में जो ऐतिहासिक कार्य किया वह संस्कृत
प्रेमियों के लिए मील का पत्थर बन गया लखीमपुर में रामलीला दशहरा मेला नगर पालिका
परिषद के द्वारा अत्यंत भव्य रुप से मनाया जाता है जिसमें शारदीय नवरात्र प्रतिपदा
से लेकर धनत्रयोदशी तक रामलीला के साथ साथ अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों
का आयोजन राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है
वैसे भाग्य पवित्र वह खुले मंच
पर अत्यंत संघर्ष करके अखिल भारतीय संस्कृत कवि सम्मेलन का आरंभ उन्हीं के
प्रयासों का परिणाम है आचार्य जी आजीवन इस आयोजन का अपनी स्वयं की क्षमताओं से
करते रहे 1910 में उनके देहावसान के पश्चात शायद उन्हीं की प्रेरणा से मैंने
नगरपालिका के इस संस्कृत कवि सम्मेलन को आचार्य बाबूराम अवस्थी की स्मृति को
समर्पित करने हेतु प्रार्थना पत्र दिया जो स्वीकृत हो गया और तब से यह आयोजन
उत्तरोत्तर भव्य रुप से नगर वासियों का फ्री कार्यक्रम बन गया है वास्तव में
आचार्य जी दुर्बल काया में भी दधीचि सा तपोबल धारण करते थे 1910 में जब मैंने तथा
उनके दत्तक पुत्र श्री विजय तिवारी ने अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया आचार्य जी की
अस्वस्थता के कारण उनका लोकार्पण उनके घर के आंगन में ही किया गया आचार्य जी हर
क्षण कोई प्रेरणा हर वाक्य एक उपदेश जैसा था बहुत कुछ सीखा है
No comments:
Post a Comment