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भारतीय दर्शनों का सामान्य परिचय

चार्वाक दर्शन        

चार्वाक दर्शन एक भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। यह दर्शन वेदबाह्य भी कहा जाता है।
वेदवाह्य दर्शन छ: हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, और आर्हत। इन सभी में वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है।
चार्वाक प्राचीन भारत के एक अनीश्वरवादी और नास्तिक तार्किक थे। ये नास्तिक मत के प्रवर्तक वृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं। बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है। बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है।
चार्वाक का नाम सुनते ही आपको यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा, घृतं पीवेत’ (जब तक जीओ सुख से जीओ, उधार लो और घी पीयो) की याद आएगी. चार्वाकनाम को ही घृणास्पद गाली की तरह बदल दिया गया है। मानों इस सिद्धांत को मानने वाले सिर्फ कर्जखोर, भोगवादी और पतित लोग थे। प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पति चारु’+’वाक्’ (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। ज़ाहिर है कि यह नामकरण इस सिद्धांत के उन विरोधियों द्वारा किया गया है कि जिनका मानना था कि यह लोग मीठी-मीठी बातों से भोले-भले लोगों को बहकाते थे। चार्वाक सिद्धांतों के लिए बौद्ध पिटकों तक में लोकायतशब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब दर्शन की वह प्रणाली है जो जो इस लोक में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती’. चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं. ज़ाहिर है कि चूंकि यह अपने समय की सत्ताधारी ताकतों के खिलाफ बात करता था, तो इसके ग्रंथों को नष्ट कर दिया गया और प्रचलित कथाओं में चार्वाकों को खलनायकों की तरह पेश किया गया।
सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक का मत दिया हुआ मिलता है। पद्यपुराण में लिखा है कि असुरों को बहकाने के लिये बृहस्पति ने वेदविरुद्ध मत प्रकट किया था। नास्तिक मत के संबध में विष्णुपुराण में लिखा है कि जब धर्मबल से दैत्य बहुत प्रबल हुए तब देवताओं ने विष्णु के यहाँ पुकार की। विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह नामक एक पुरुष उत्पन्न किया जिसने नर्मदा तट पर दिगबंर रूप में जाकर तप करते हुए असुरों को बहकाकर धर्ममार्ग मे भ्रष्ट किया। मायामोह ने अपुरों को जो उपदेश किया वह सर्वदर्शनसंग्रह में दिए हुए चार्वाक मत के श्लोकों से बिलकुल मिलता है। जैसे, - मायामोह ने कहा है कि यदि यज्ञ में मारा हुआ पशु स्वर्ग जाता है तो यजमान अपने पिता को क्यों नहीं मार डालता, इत्यादि। लिंगपुराण में त्रिपुरविनाश के प्रसंग में भी शिवप्रेरित एक दिगंबर मुनि द्वारा असुरों के इसी प्रकार बहकाए जाने की कथा लिखी है जिसका लक्ष्य जैनों पर जान पड़ता है। वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांडमें महर्षि जावालि ने रामचंद्र को बनबाम छोड़ अयोध्या लौट जाने के लिये जो उपदेश दिया है वह भी चार्वाक के मत से बिलकुल मिलता है। इन सब बातों से सिद्ध होता है कि नास्तिक मत बहुत प्राचीन है। इसका अविर्भाव उसी समय मे समझना चाहिए जव वैदिक कर्मकांड़ों की अधिकता लोगों को कुछ खटकने लगी थी।
चार्वाक ईश्वर और परलोक नहीं मानते। परलोक न मानने के कारण ही इनके दर्शन को लोकायत भी कहते हैं। सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक के मत से सुख ही इस जीवन का प्रधान लक्ष्य है। संसार में दुःख भी है, यह समझकर जो सुख नहीं भोगना चाहते, वे मूर्ख हैं। मछली में काँटे होते हैं तो क्या इससे कोई मछली ही न खाय ? चौपाए खेत पर जायँगे, इस डर से क्या कोई खेत ही न बोवे ? इत्यादि। चार्वाक आत्मा को पृथक् कोई पदार्थ नहीं मानते। उनके मत से जिस प्रकार गुड़, तंडुल आदि के संयोग से मद्य में मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के संयोगविशेष से चेतनता उत्पन्न हो जाती है। इनके विश्लेषण या विनाश से 'मैं' अर्थात् चेतनता का भी नाश हो जाता है। इस चेतन शरीर के नाम के पीछे फिर पुनरागमन आदि नहीं होता। ईश्वर, परलोक आदि विषय अनुमान के आधार पर हैं।
पर चार्वाक प्रत्यक्ष को छोड़कर अनुमान को प्रमाण में नहीं लेते। उनका तर्क है कि अनुमान व्याप्तिज्ञान का आश्रित है। जो ज्ञान हमें बाहर इंद्रियों के द्वारा होता है उसे भूत और भविष्य तक बढ़ाकर ले जाने का नाम व्याप्तिज्ञान है, जो असंभव है। मन में यह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, यह कोई प्रमाण नहीं क्योंकि मन अपने अनुभव के लिये इंद्रियों का ही आश्रित है। यदि कहो कि अनुमान के द्वारा व्याप्तिज्ञान होता है तो इतरेतराश्रय दोष आता है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान को लेकर ही तो अनुमान को सिद्ध किया चाहते हो। चार्वाक का मत सर्वदर्शनसंग्रह, सर्वदर्शनशिरोमणि और बृहस्पतिसूत्र में देखना चाहिए । नैषध के 17वें सर्ग में भी इसका विस्तृत विवेचन किया गया है ।
चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादिता का समर्थन करता है, वह अनुमान आदि प्रमाणों को नही मानता है। उसके मत से पृथ्वी जल तेज और वायु ये चार ही तत्व है, जिनसे सब कुछ बना है। उसके मत में आकाश तत्व की स्थिति नही है, इन्ही चारों तत्वों के मेल से यह देह बनी है, इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते है। शरीर जब विनष्ट हो जाता है, तो चैतन्य भी खत्म हो जाता है। इस प्रकार से जीव इन भूतो से उत्पन्न होकर इन्ही भूतो के के नष्ट होते ही समाप्त हो जाता है, आगे पीछे इसका कोई महत्व नही है। इसलिये जो चेतन में देह दिखाई देती है वही आत्मा का रूप है, देह से अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण ही नही मिलता है। चार्वाक के मत से स्त्री पुत्र और अपने कुटुम्बियों से मिलने और उनके द्वारा दिये जाने वाले सुख ही सुख कहलाते है। उनका आलिन्गन करना ही पुरुषार्थ है, संसार में खाना पीना और सुख से रहना चाहिये। इस दर्शन में कहा गया है, कि:-
          यावज्जीवेत सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्
               भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नही है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?

सांख्यदर्शन

सत्कार्यवाद, सांख्यदर्शन का मुख्य आधार है। इस सिद्धान्त के अनुसार, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः, इस जगत की उत्पत्ति शून्य से नहीं किसी मूल सत्ता से है। यह सिद्धान्त बौद्धों के शून्यवाद के विपरीत है।
       कार्य, अपनी उत्पत्ति के पूर्ण कारण में विद्यमान रहता है। कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के व्यक्त-अव्यक्त रूप हैं। सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना।
         सत्कार्यवाद, कारणवाद का न्यायदर्शनसम्मत सिद्धांत है। इसके अनुसार कार्य उत्पत्ति के पहले नहीं रहता। न्याय के अनुसार उपादान और निमित्त कारण अलग-अलग कार्य उत्पन्न करने की पूर्ण शक्ति नहीं है किंतु जब ये कारण मिलकर व्यापारशील होते हैं तब इनकी सम्मिलित शक्ति ऐसा कार्य उत्पन्न होता है जो इन कारणों से विलक्षण होता है। अत: कार्य सर्वथा नवीन होता है, उत्पत्ति के पहले इसका अस्तित्व नहीं होता। कारण केवल उत्पत्ति में सहायक होते हैं।

           सांख्यदर्शन इसके विपरीत कार्य को उत्पत्ति के पहले कारण में स्थित मानता है, अत: उसका सिद्धांत सत्कार्यवाद कहलाता है। न्यायदर्शन, भाववादी और यथार्थवादी है। इसके अनुसार उत्पत्ति के पूर्व कार्य की स्थिति माना अनुभवविरुद्ध है। न्याय के इस सिद्धांत पर आक्षेप किया जाता है कि यदि असत् कार्य उत्पन्न होता है तो शशश्रृंग जैसे असत् कार्य भी उत्पन्न होने चाहिए। किंतु न्यायमंजरी में कहा गया है कि असत्कार्यवाद के अनुसार असत् की उत्पत्ति नहीं मानी जाती। अपितु जो उत्पन्न हुआ है उसे उत्पत्ति के पहले असत् माना जाता है।

योग दर्शन

योग दर्शन के आदि आचार्य हिरण्यगर्भ है हिरण्यगर्भ – सूत्रों के आधार पर ( जो इस समय लुप्त है ) पतञ्जलि मुनि ने योग दर्शन का निर्माण किया |
योगदर्शन के चार पाद है और १९५ सूत्र है समाधिपाद में ५१साधनपाद में ५५विभूतिपाद में ५५ और केवल्यपाद में ३४ |
१. समाधिपाद – इसमें समाहितचित्त वाले सबसे उत्तम अधिकारियों के लिए योग का वर्णन किया गया है |
सारा समाधिपाद एक प्रकार से निम्न तीन सूत्रों की विस्तृत व्याख्या है |
(१) योग चित्त की वृत्तियों का रोकना है |
(२) वृत्तियों का निरोध होने पर द्रष्टा के स्वरुप में अवस्थिति होती है |
(३) स्वरूपावस्थिति से अतिरिक्त अवस्था में द्रष्टा वृत्ति के समान रूप वाला प्रतीत होता है |
चित्त बुद्धिमनअन्तःकरण लगभग पर्यायवाचक समानार्थक शब्द है . जिनका भिन्न – भिन्न दर्शनकारों ने अपनी अपनी परिभाषा में प्रयोग किया है |
मन की चञ्चलता प्रसिद्ध है सृष्टि के सारे कार्यों में मन की स्थिरता ही सफलता का कारण होती है सृष्टि के महान पुरुषों की अद्भुत शक्तियों में उनके मन की एकाग्रता का रहस्य छिपा हुआ होता है |

योग के अन्तर्गत मन को दो प्रकार से रोकना होता है – एक तो केवल एक विषय में लगातार इस प्रकार लगाए रखना किदूसरा विचार न आने पावे इसको एकाग्रता अथवा सम्प्रज्ञात समाधि कहते है जिसके चार भेद है |
(१) वितर्क – किसी स्थूल विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता |
(२) विचार – किसी सुक्ष्म विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता |
(३) आनन्द – अहंकार विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता |
(४) अस्मिता – अहंकार रहित अस्मिता विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता |
इसकी सबसे ऊँची अवस्था विवेक ख्याति है जिसमे चित्त का आत्माध्यास छूट जाता है और उसके द्वारा आत्मस्वरूप का उससे पृथक – रूप में साक्षात्कार होता है किन्तु योग दर्शा में इसको वास्तविक आत्मा स्थिति नहीं बतलाया गया है यह भी चित्त की एक वृत्ति अथवा मन का ही एक विषय है ( एक उच्चत्तम सात्त्विक वृत्ति ) किन्तु इसका निरन्तर अभ्यास वास्तविक स्वरूपस्थिति में सहायक होता है |
निरोध अपने स्वरुप का सर्वथा नाश हो जाना नहीं है किन्तु जड़ तत्त्व के अविकेकपूर्ण संयोग का चेतन तत्त्व से सर्वथा नाश हो जाना है इस संयोग के न रहने पर द्रष्टा की सुद्ध परमात्मा स्वरुप में अवस्थिति होती है |
२. साधनपाद – इसमें विक्षिप्त चित्तवाले मध्यम अधिकारियों के लिए योग का साधन बतलाया गया है |
सर्वबन्धनों और दुःखों के मूल कारण पांच क्लेश है – अविद्याअस्मितारागद्वेष और अभिनिवेश |
क्लेशों से कर्म की वासनाएँ उत्पन्न होती है |
कर्म – वासनाओं से जन्म रूप वृक्ष उत्पन्न होता है |
उस वृक्ष में जातीआयु और भोग रुपी तीन प्रकार के फल लगते है |
इन तीन फलों से सुख – दुःख रुपी दो प्रकार का स्वाद होता है |
जो पुण्य कर्म ( हिंसा रहित कूसरे के कल्याणार्थ ) किये जाते है उनसे जाती आयु और भोग में सुख मिलता है |

जो पाप कर्म ( हिंसात्मक दूसरों को दुःख पहुंचाने की लिए) किये जाते हैं उनसे जातीआई और भोग में दुःख पहुँचता है |
किन्तु यह सुख भी तत्त्ववेत्ता की दृष्टि में दुःखस्वरूप ही है क्योंकि विषयों में परिणाम दुःख ताप दुःख और संस्कार दुःख मिला हुआ होता है और तीनों गुणों के सदा अस्थिर रहने के कारण उनकी सुख – दुःख और मोह रुपी वृत्तियाँ भी बदलती रहती है |
इसलिए सुख के पीछे दुःख का होना आवश्यक है |
दुःख के नितांत अभाव का उपाय निर्मल अडोल विवेक ख्याति है |
विवेकख्याति की सात प्रकार की सबसे ऊँची अवस्थावाली प्रज्ञा होती है |
(१) जो कुछ जानना था जान लिया ( दुःख का कारण ) – अब कुछ जानने योग्य नहीं रहा अर्थात जितना गुणमय दृश्य है वह सब परिणामताप और संस्कार दुःखों से दुःख स्वरुप ही है इसलिए हेय’ है |
(२) जो कुछ करना था दूर कर दिया ( – अब कुछ दूर करने योग्य नहीं रहा अर्थात द्रष्टा और दृश्य का संयोग जो ‘ हेय हेतु ‘ है वह दूर कर दिया |
(३) जो कुछ साक्षात करना था कर लिया अब कुछ साक्षात करने योग्य नहीं रहा अर्थात निरोध समाधि द्वारा ‘ हान ‘ को साक्षात कर लिया |
(४) जो कुछ करना था कर लिया अब कुछ करने योग्य नहीं रहा अर्थात अविप्लव विवेक – ख्याति सम्पादन कर लिया |
(५) चित्त ने अपने भोग अपवर्ग दिलाने का अधिकार पूरा कर दिया अब कोई अधिकार शेष नहीं रहा |
(६) चित्त के गुण अपने भोग अपवर्ग का प्रयोजन सिद्ध करके अपने कारण में लीं हो रहे है |
(७) गुणों से पर हो कर शुद्ध परमात्मा अवस्थिति हो रही है |
योग के आठ अंग 

निर्मल विवेक ख्याति जिसे ‘ हान’ का उपाय बतलाया है उसकी उत्पत्ति का साधन अष्टांग योग है अर्थात योग के आठ अंगों के अनुष्ठान से – अशुद्धि के क्षय होने पर – ज्ञान की दीप्ति – विवेक – ख्याति पर्यन्त बढ़ जाती है |
योग के आठ अंग – यामनियमआसन प्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान और समाधि है |
साधनपाद में योग के पाँच बहिरंग साधन यम नियमआसानप्राणायामप्रत्याहार बतलाये गए है |
विभूतिपाद में उसके अन्तरंग धारणा ध्यानसमाधि का निरूपण करते है |
३. विभूतिपाद – धारणाध्यान और समाधि – तीनो मिलकर संयम कहाते है इस संयम के विनियोग से नाना प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो सकती है ये सिद्धियां – श्रद्धालुओं के योग में श्रद्धा बढ़ाने में और विक्षिप्त ( असमाहित ) चित्त वालों के चित्त को एकाग्र करने में सहायक होती है किन्तु इन्समे आसक्ति नहीं होनी चाहिए |

योगमार्ग पर चलने वाले के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन आते है अभ्यासी को उनसे सावधान रहना चाहिए उसमे फँसने से और घमंड से बचे रहना चाहिए स्थान वालों के आदर भाव करने पर लगाव और अभिमान नहीं करना चाहिए चित्त और पुरुष के भेद जानने वाला सारे भावों के अधिष्ठातृत्त्व और सर्वज्ञातृत्त्व को प्राप्त होता है किन्तु योगी को उनमे भी अनासक्त रह कर अपने असली ध्येय की ओर बढ़ना चाहिए उसमे भी व

न्याय दर्शन

महर्षि अक्षपाद गौतम द्वारा प्रणीत न्याय दर्शन एक आस्तिक दर्शन है, जिसमें ईश्वर कर्म-फल प्रदाता है। इस दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रमाण है। न्याय शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है परन्तु दार्शनिक साहित्य में न्याय वह साधन है, जिसकी सहायता से किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्ध या किसी सिद्धान्त का निराकरण होता है-
          नीयते प्राप्यते विविक्षितार्थ सिद्धिरनेन इति न्याय:।।
अत: न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पड़ताल के उपायों का वर्णन किया गया है।
इस ग्रन्थ में पाँच अध्याय है तथा प्रत्येक अध्याय में दो दो आह्रिक हैं। कुल सूत्रों की संख्या ५३९ हैं।
न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पडद्यताल के उपायों का वर्णन किया गया है कहा है कि सत्य की खोज के लिए सोलह तत्व है। उन तत्वों के द्वारा किसी भी पदार्थ की सत्यता (वास्तविकता) का पता किया जा सकता है। ये सोलह तत्व है-
(१) प्रमाण, (२) प्रमेय, (३)संशय, (४) प्रयोजन, (५) दृष्टान्त, (६) सिद्धान्त, (७)अवयव, (८) तर्क (९) निर्णय, (१०) वाद, (११) जल्प, (१२) वितण्डा, (१३) हेत्वाभास, (१४) छल, (१५) जाति और (१६) निग्रहस्थान || इन सबका वर्णन न्याय दर्शन में है और इस प्रकार इस दर्शन शास्त्रको तर्क करने का व्याकरण कह सकते हैं। वेदार्थ जानने में तर्क का विशेष महत्व है। अत: यहदर्शन शास्त्र वेदार्थ करने में सहायक है। दर्शनशास्त्र में कहा है- (तत्त्वज्ञानान्नि:श्रेयसाधिगम:।।)
अर्थात्- इन सोलह तत्वों के ज्ञान से निश्रेयस् (मोक्ष)की प्राप्ति होती है।(सत्य की खोज में सफलता प्राप्ति होती है)।
न्याय दर्शन के चार विभाग-
१. सामान्य ज्ञान की समस्या का निराकरण
२. जगत की समस्या का निराकरण
३. जीवात्मा की मुक्ति
४. परमात्मा का ज्ञान
न्याय दर्शन में आघ्यात्मवाद की अपेक्षा तर्क एवं ज्ञान का आधिक्य है| इसमें तर्क शास्त्र का प्रवेश इसलिए कराया गया क्योंकि स्पष्ट विचार एवं तर्क-संगत प्रमाण परमानन्द की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। न्याय दर्शन में १. सामान्य ज्ञान २. संसार की क्लिष्टता ३. जीवात्मा की मुक्ति एवं ४. परमात्मा का ज्ञान- इन चारों गंभीर उद्देश्यों को लक्ष्य बनाकर प्रमाण आदि १६ पदार्थ उनके तार्किक समाधान के माने गये है किन्तु इन सबमे प्रमाण ही मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। किसी विषय में यथार्थ ज्ञान पर पहुंचने और अपने या दूसरे के अयथार्थ ज्ञान की त्रुटि ज्ञात करना ही इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है।
दु:ख का अत्यन्तिक नाश ही मोक्ष है।
न्याय दर्शन की अन्तिम दीक्षा यही है कि केवल ईश्वरीयता ही वांछित है, ज्ञातव्य है और प्राप्य है- यह संसार नहीं।

पदार्थ और मोक्ष

मुक्ति के लिए इन समस्याओं का समाधान आवश्यक है जो १६ पदार्थों के तत्वज्ञान से होता है। इनमें प्रमाण और प्रमेय भी है। तत्वज्ञान से मिथ्या-ज्ञान का नाश होता है। राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके यही मोक्ष दिलाता है। सोलह पदार्थों का तत्व-ज्ञान निम्नलिखित क्रम से मोक्ष का हेतु बनाता है।
दु:ख-जन्म प्रवृति- दोष मिथ्यामानानाम उत्तरोत्तरापाये तदनंन्तरा पायायदपवर्ग:।।
अर्थात-दु:ख, जन्म, प्रवृति(धर्म-अधर्म),दोष (राग,द्वेष), और मिथ्या ज्ञान-इनमें से उत्तरोतर नाश द्वाराइसके पूर्व का नाश होने से अपवर्ग अर्थात् मोक्ष होता है। इनमें से प्रमेय के तत्व-ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है और प्रमाण आदि पदार्थ उस ज्ञान के साधन है। युक्ति तर्क है जो प्रमाणों की सहायता करता है।पक्ष-प्रतिपक्ष के द्वारा जो अर्थ का निश्चय है, वही निर्णय है। दूसरे अभिप्राय से कहे शब्दों का कुछ और ही अभिप्राय कल्पना करके दूषण देना छल है।

आत्मा का अस्तित्व
आत्मा, शरीर और इन्द्रियों में केवल आत्मा ही भोगने वाला है। इच्छा,द्वेष, प्रयत्न, सुख-दु:ख और ज्ञान उसके चिह्म है जिनसे वह शरीर से अलग जाना पड़ता है। उसके भोगने का घर शरीर है। भोगने के साधन इन्द्रिय है। भोगने योग्य विषय (रूप,रस,गंध, शब्द और स्पर्श) ये अर्थ है उस भोग का अनुभव बुध्दि है और अनुभव कराने वाला अंत:करण मन है। सुख-दु:ख का कराना फल है और अत्यान्तिक रूप से उससे छूटना ही मोक्ष है।

वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष कणाद है। चूंकि ये दर्शन परिमण्डल, पंच महाभूत और भूतों से बने सब पदार्थों का वर्णन करता है, इसलिए वैशेषिक दर्शन विज्ञान-मूलक है।
वैशेषिक दर्शन के प्रथम दो सूत्र है-
अथातो धर्म व्याख्यास्याम:।।(1,1,1) अब हम धर्म की व्याख्या करेंगे।
यतोSभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:।।(1,1,2)
जिससे इहलौकिक और पारलौकिक (नि:श्रेयस) सुख की सिध्दि होती है वही धर्म है।
कणाद के वैशेषिक दर्शन की गौतम के न्याय-दर्शन से भिन्नता इस बात में है कि इसमें सोलह पदार्थों के बजाय ७ सात ही पदार्थों का विवेचन है। जिसमें विशेष पर अधिक बल दिया गया है। ये सात पदार्थ है- द्रव्य, गुण, कर्म, समन्वय,विशेष , समवाय और अभाव।
वैसे वैशेषिक दर्शन बहुत कुछ न्याय दर्शन के समरूप है और इसका लक्ष्य जीवन में सांसारिक वासनाओं को त्याग कर सुख प्राप्त करना और ईश्वर के गंभीर ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा अंतत: मोक्ष प्राप्त करना है। न्याय-दर्शन की तरह वैशेषिक भी प्रश्नोत्तर के रूप में ही लिखा गया है। वैशेषिक दर्शन में पदार्थों की संख्या केवल छह है। द्रव्य,गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। क्योंकि इस दर्शन में विशेष पदार्थ सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। इसलिए इसका नाम वैशेषिक दर्शन है।
         धर्म विशेष पसूताद द्रव्यगुणकर्म सामान्य विशेष समवायानां
        पदार्थांनां साधर्म्सवैधर्म्याभ्यां तत्वज्ञानान्नि:श्रेयसम्।। वैशेषिक १||
अर्थात् धर्म-विशेष से उत्पन्न हुए पदार्थ यथा,द्रव्य,गण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय-रूप पदार्थों के सम्मिलित और विभक्त धर्मो के अघ्ययन-मनन और तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। ये मोक्ष विश्व की अाण्वीय प्रकृति तथा आत्मा से उसकी भिन्नता के अनुभव पर निर्भर कराता है।
वैशेषिक दर्शन में पदार्थों का निरूपण निम्नलिखित रूप से हुआ है :-- पृथिवी : गंध गुण वाला पदार्थ है|
जल: यह शीतल स्पर्श वाला पदार्थ है।
तेज: उष्ण स्पर्श वाला गुण है।
वायु: रूप रहित स्पर्श वाला है|
आकाश: शब्द जिसके आश्रित हो| विभु, एक,
काल: एक है ,उपाधी के कारण क्षण,दिन,आदि का व्यवहार होता है, और सारे कायो की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है।
दिक् : दिशा एक, उपाधी के कारण पूर्व, दक्षिण आदि व्यवहार होता है|
आत्मा: इसकी पहचान चैतन्य-ज्ञान है। और ज्ञान का आश्रय है|
मन: यह मनुष्य क अभ्यन्तर में सुख-दु:ख आदिके ज्ञान का साधन है।
पंचभूत: -- पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश
पंचमूर्त: -- पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन
पंच इन्द्रिय: --घ्राण, रसना, नेत्र, त्वचा, श्रोत्र और मन
पंच-विषय: --गंध,रस,रूप,स्पर्श ,शब्द और सुखादि
बुध्दि: -- घ्राणज, रासन, चाक्षुस, त्वाच, श्रौत्र, और मानस | ये ज्ञान है और केवल आत्मा का गुण है।
नया ज्ञान--अनुभव है और पिछला स्मरण ।
संख्या, परिमाण, पृथकता, संयोग और विभाग ये
गुण सभी द्रव्यों में रहते हैं।
अनुभव: यथार्थ(प्रमा, विद्या) एवं अयथार्थ, (अविद्या)
स्मृति: पूर्व के अनुभव के संस्कारों से उत्पन्न ज्ञान
सुख: इष्ट विषय की प्राप्ति जिसका स्वभाव अनुकूल होता है। अतीत के विषयों के स्मरण एवं भविष्यतमें उनके संकल्प से सुख होता है।सुख मनुष्य का परमोद्देश्य होता है।
दु:ख: इष्ट के जाने या अनिष्ट के आने से होता है जिसकी प्रकृति प्रतिकूल होती है।
इच्छा: किसी अप्राप्त वस्तु की प्रार्थना ही इच्छ है जो फल या उपाय के हेतु होती है। धर्म, अधर्म या
अदृष्ट: वेद-विहित कर्म जो कर्ता के हित और मोक्ष का साधन होता है, धर्म कहलाता है। अधर्म से अहित और दु:ख होता है जो प्रतिषिद्ध कर्मो से उपजता है। अदृष्ट में धर्म और अधर्म दोनों सम्मिलित रहते हैं।
वैशेषिक दर्शन के मुख्य पदार्थ
१.द्रव्य: द्रव्य गिनती में ९ है पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।।(विशैषिक १।१।५) अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन।
२. गुण: गुणों की संख्या चौबीस मानी गयी है जिनमें कुछ सामान्य और बॉकी विशेष कहलाते हैं। जिन गुणो से द्रव्यों में विखराव न हो उन्हें सामान्य(संख्या, वेग, आदि) और जिनसे बिखराव (रूप,बुध्दि, धर्म आदि) उन्हें विशेष गुण कहते है।
३. कर्म: किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में कर्म की आवश्यकता होती है, इसलिए द्रव्य और गुण के साथ कर्म को भी मुख्य पदार्थ कहते हैं। चेलना,फेंकना, हिलना आदि सभी कर्म । मनुष्य के कर्म पुण्य-पाप रूप होते हैं।
४. सामान्य: मनुष्यों में मनुष्यत्व, वृक्षों में वृक्षत्व जाति सामान्य है और ये बहुतों में होती है। दिशा, काल आदि में जाति नहीं होती क्योंकि ये अपने आप में अकेली है।
५. विशेष: देश काल की भिन्नता के बाद भी एक दूसरे के बीच पदार्थ जो विलक्षणता का भेद होता है
है वह उस द्रव्य में एक विशेष की उपस्थिति से होता है। उस पहचान या विलक्षण प्रतीति का एक निमित्त होता है-यथा गो में गोत्व जाति से, शर्करा में मिठास से।
६. समभाव: जहाँ गुण व गुणी का संबंध इतना घना है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।
७. अभाव: इसे भी पदार्थ माना गया है। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति से पूर्व उसका अभाव अथवा किसी एक वस्तु में दूसरी वस्तु के गुणों का अभाव (ये घट नहीं, पट है) आदि इसके उदाहरण है।

मीमांसा दर्शन

       पूर्वमीमांसा श्री वेदव्यास जी के शिष्य जैमिनी मुनि ने प्रवृति मार्गी गृहस्थियों तथा कर्मकाण्डियों के लिए बनायी हैं | इसको जैमिनी दर्शन भी कहते हैं |
 (पूर्व) मीमांसा के अनुसार धर्म की व्याख्या वेदविहित शिष्टों से आचरण किये हुए कर्मों में अपना जीवन ढालना हैं | इसमें सब कर्मों को यज्ञों / महायज्ञों के अंतर्गत कर दिया गया हैं | पूर्णिमा तथा अमावस्या में जो छोटी-छोटी इष्टियाँ की जाती हैं इनका नाम यज्ञ और अश्वमेघ आदि यज्ञों का नाम महायज्ञ है |
१. ब्रह्मयज्ञ प्रातः और सांयकाल की संध्या तथा स्वाध्याय |
२. देवयज्ञ प्रातः और सांयकाल का हवन |
३. पितृयज्ञ देव और पितरों की पूजा अर्थात माता, पिता, गुरु आदि की सेवा तथा उनके प्रति श्रद्धा भक्ति |
४. बलिवैश्वदेवयज्ञ पकाये हुए अन्न में से अन्य प्राणियों के लिए भाग निकालना |
५. अतिथि यज्ञ घर पर आये हुए अतिथियों का सत्कार |
ये यज्ञ के अवान्तर भेद है |  
     ये यज्ञ और महायज्ञ वेदों में बतलायी हुई विधि के अनुसार होने चाहिए | इसलिए जैमिनी मुनि ने इनकी सिद्धि के लिए शब्दअर्थात आगमप्रमाण ही माना हैं जो वेद हैं |
वेद के पांच प्रकार के विषय है
१. विधि – ‘स्वर्गकामो यजेत ‘ ‘स्वर्ग की कामना वाला यज्ञ करेंइस प्रकार के वाक्यों को विधिकहते हैं |
२. मंत्र अनुष्ठान के अर्थ स्मारक वचनों को मंत्रनाम से पुकारते हैं |
३. नामधेय यज्ञ के नाम की नामधेयसंज्ञा हैं |
४. निषेध अनुचित कार्य के विरत होने को निषेधकहते हैं |
५. अर्थवाद किसी पदार्थ के सच्चे गुणों के कथन को अर्थवादकहते हैं |
       इन पांच विषयों के होने पर भी वेद का तात्त्पर्य विदिवक्यों में ही हैं | अन्य चारों विषय उनके केवल अंग भूत हैं तथा पुरुषों को अनुष्ठान के लिए उत्सुक बनाकर विधिवाक्यों को ही संपन्न किया करते हैं |
     विधि चार प्रकार की होती हैं
      १. कर्म के स्वरूपमात्र को बतलाने वाली विधि उत्पत्ति विधिहैं |
      २. अंग तथा प्रधान अनुष्ठानों के सम्बन्ध बोधक विधि को विनियोग विधिहै।
       ३. कर्म से उत्पन्न फल के स्वामित्व को कहलाने वाली विधि को अधिकार-विधितथा
        ४. प्रयोग के प्राशुभाव ( शीघ्रता ) के बोधक विषय को प्रयोगविधिकहते हैं |
       विध्यर्थ के निर्णय करने में सहायक श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान तथा समाख्या नामक शठ प्रमाण होते हैं |
     जैमिनी मुनि के अनुसार यज्ञों से ही स्वर्ग अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति होती हैं |
       वेदों के कर्मकाण्ड प्रतिपादक वाक्यों में जो विरोध प्रतीत होता हैं , केवल उसके वास्तविक अविरोध को दिखलाने के लिए पूर्व मीमांसा की रचना की गयी हैं |
     हानोपाय इसी प्रकार जहाँ उत्तरमीमांसा में हानोपायअर्थात मुक्ति का साधन, ज्ञानियों तथा सन्यासियों किए लिए, ज्ञान द्वारा तीसरे तत्त्व अर्थात परमात्मा की उपासना बतलायी गयी है , वहॉं पूर्वमीमांसा में कर्मकाण्डी गृहस्थियों के लिए यज्ञों द्वारा व्यष्टि रूप से उसी ब्रह्म की उपासना बतलायी गयी है |
       मीमांसकों के मोक्ष की परिभाषा इन शब्दों में हैं इस जगत के साथ आत्मा के शारीर , इंद्रिय और विषय  इन तीनों प्रकार के सम्बन्ध के विनाश का नाम मोक्ष हैं ; क्योंकि इन बंधनों ने ही पुरुष को जकड रखा हैं | इस त्रिविध बांध के आत्यन्तिक नाश की संज्ञा मोक्ष हैं | सांख्य और योग के अनुसार यह सम्प्रज्ञात समाधि का अंतिम ध्येय हैं | (पूर्व) मीमांसा ग्रन्थ सब दर्शनों में सबसे बड़ा हैं |
     इसके सूत्रों की संख्या २६४४ तथा अधिकरणों के ९०९ हैं जो की अन्य सब दर्शनों के सूत्रों की सम्मिलित संख्या के बराबर हैं | द्वादश अध्यायों में धर्म के विषय में ही विस्तृत विचार किया गया हैं | पहले अध्याय का विषय हैं धर्मविषयक प्रमाण , दूसरे का भेद, तीसरे का अङ्गत्व, चौथे का प्रयोज्य-प्रायोजक भाव , पांचवे का क्रम अर्थात कर्मों के आगे-पीछे हो इनके निर्देश , छठे का अधिकार ( यज्ञ करने वाले पुरुष के योग्यता ) , सातवें तथा आठवें का अतिदेश ( एक कर्म की समानता पर अन्य कर्म का विनियोग ), नवें का ऊह , दसवें का बाघ, ग्यारहवें का तन्त्र, तथा  बारहवें का विषय प्रसंग हैं |
       पूर्व मीमांसा पर सबसे प्राचीन वृत्ति आचार्य उपवर्ष की हैं |

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