वेदान्त’ का अर्थ
‘वेदान्त’ का शाब्दिक अर्थ है ‘वेदों का अन्त’। आरम्भ में उपनिषदों के लिए ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग हुआ किन्तु बाद में उपनिषदों के सिद्धान्तों
को आधार मानकर जिन विचारों का विकास हुआ, उनके लिए भी ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग होने लगा। उपनिषदों के लिए 'वेदान्त' शब्द के प्रयोग के प्रायः तीन कारण दिये जाते हैं :-
(1) उपनिषद् ‘वेद’ के अन्त में आते हैं। ‘वेद’ के अन्दर प्रथमतः वैदिक संहिताएँ- ऋक्,
यजुः, साम तथा अथर्व आती हैं और इनके उपरान्त ब्राह्मण,
आरण्यक तथा उपनिषद् आते हैं। इस साहित्य के अन्त में होने
के कारण उपनिषद् वेदान्त कहे जाते हैं।
(2) वैदिक अध्ययन की दृष्टि से भी उपनिषदों के अध्ययन की बारी
अन्त में आती थी। सबसे पहले संहिताओं का अध्ययन होता था। तदुपरान्त गृहस्थाश्रम
में प्रवेश करने पर यज्ञादि गृहस्थोचित कर्म करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थों की
आवश्यकता पड़ती थी। वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर आरण्यकों की
आवश्यकता होती थी, वन में रहते हुए लोग जीवन तथा जगत् की पहेली को सुलझाने का
प्रयत्न करते थे। यही उपनिषद् के अध्ययन तथा मनन की अवस्था थी।
(3) उपनिषदों में वेदों का ‘अन्त’ अर्थात् वेदों के विचारों का परिपक्व रूप है। यह माना जाता
था कि वेद-वेदांग आदि सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी बिना उपनिषदों की
शिक्षा प्राप्त किये हुए मनुष्य का ज्ञान पूर्ण नहीं होता था।
वेदादि में विधिपूर्वक अध्ययन,
मनन तथा उपासना आदि के अन्त में जो तत्त्व जाना जाये उस
तत्त्व का विशेष रूप से यहाँ निरूपण किया गया हो, उस शास्त्र को ‘वेदान्त’ कहा जाता है।
वेदान्त का साहित्य
गौडपाद (300 ई.) तथा उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (700 ई.) ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और जगत् को उससे अभिन्न
मानते हैं। उनके अनुसार तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। नाशवान्
जगत तत्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा तत्वत: नहीं है। जाग्रत और
स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत् में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच
ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप
सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अत: इससे परे तुरीयावस्था को
जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत् से कोई संबंध नहीं होता
और जीव को पुन: नश्वर जगत् में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास
से प्राप्त होती है। ब्रह्म-जीव-जगत् में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत्
जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी
अज्ञान के कारण जीव जगत् को अपने से पृथक् समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह
जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का
परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत् का ज्ञान होने
पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है। परंतु बौद्धों की तरह वेदान्त में जीव को जगत्
का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम
सत्य है,
उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु
जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की
तुरीयावस्था भेदज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या
संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था
में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को
ब्रह्म कहते हैं। तत्व असीम होता है, यदि दूसरा तत्व भी हो तो पहले तत्व की सीमा हो जाएगी और
सीमित हो जाने से वह तत्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद
प्रतिभासित होने लगेगा। अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएँ नश्वर हैं। अत: यदि
हम तत्व को अनश्वर मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानना ही होगा। ऐसे तत्व को मानकर जगत् की
अनुभूयमान स्थिति का हमें विवर्तवाद के सहार व्याख्यान करना होगा। रस्सी में
प्रतिभासित होनेवाले सर्प की तरह यह जगत् न तो सत् है,
न असत् है। सत् होता तो इसका कभी नाश न होता,
असत् होता तो सुख, दु:ख का अनुभव न होता। अत: सत् असत् से विलक्षण
अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति कहकर इसी अज्ञातावस्था
का प्रतिपादन किया गया है। अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की
उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को
जगत् का कारण माना जाता है। अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है,
इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण
रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण
ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध
रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए
साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्वमसि' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत् को आत्ममय
तथा अपने में सम्पूर्ण जगत् को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के
अतिरिक्त कोई तत्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं।
अद्वैत (शांकर) वेदान्त दर्शन
ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और
जगत् को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित
होना चाहिए। नाशवान् जगत् तत्त्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा तत्त्वत: नहीं है। जाग्रत
और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत् में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच
ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप
सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अत: इससे परे तुरीयावस्था को
जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत् से कोई संबंध नहीं होता
और जीव को पुन: नश्वर जगत् में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास
से प्राप्त होती है। ब्रह्म-जीव-जगत् में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत्
जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी
अज्ञान के कारण जीव जगत् को अपने से पृथक् समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह
जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का
परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत् का ज्ञान होने
पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है। परंतु बौद्धों की तरह वेदान्त में जीव को जगत्
का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम
सत्य है,
उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु
जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की
तुरीयावस्था भेदज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या
संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था
में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को
ब्रह्म कहते हैं। तत्व असीम होता है, यदि दूसरा तत्व भी हो तो पहले तत्व की सीमा हो जाएगी और
सीमित हो जाने से वह तत्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद
प्रतिभासित होने लगेगा। अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएँ नश्वर हैं। अत: यदि
हम तत्व को अनश्वर मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानना ही होगा। ऐसे तत्व को मानकर जगत् की
अनुभूयमान स्थिति का हमें विवर्तवाद के सहार व्याख्यान करना होगा। रस्सी में
प्रतिभासित होनेवाले सर्प की तरह यह जगत् न तो सत् है,
न असत् है। सत् होता तो इसका कभी नाश न होता,
असत् होता तो सुख, दु:ख का अनुभव न होता। अत: सत् असत् से विलक्षण
अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति कहकर इसी
अज्ञातावस्था का प्रतिपादन किया गया है। अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के
अस्तित्व की उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को
जगत् का कारण माना जाता है। अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है,
इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण
रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण
ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध
रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए
साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्वमसि' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत् को आत्ममय
तथा अपने में सम्पूर्ण जगत् को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के
अतिरिक्त कोई तत्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं।
विशिष्टाद्वैत (रामानुज) वेदान्त
रामानुजाचार्य ने (11वीं शताब्दी) यह कहा कि ईश्वर (ब्रह्म) स्वतंत्र तत्व है
परंतु जीव भी सत्य है, मिथ्या नहीं। ये जीव ईश्वर के साथ संबद्ध हैं। उनका यह
संबंध भी अज्ञान के कारण नहीं है, वह वास्तविक है। मोक्ष होने पर भी जीव की स्वतंत्र सत्ता
रहती है। भौतिक जगत् और जीव अलग अलग रूप से सत्य हैं परंतु ईश्वर की सत्यता इनकी
सत्यता से विलक्षण है। ब्रह्म पूर्ण है, जगत् जड़ है, जीव अज्ञान और दु:ख से घिरा है। ये तीनों मिलकर एकाकार हो
जाते हैं क्योंकि जगत् और जीव ब्रह्म के शरीर हैं और ब्रह्म इनकी आत्मा तथा
नियंता है। ब्रह्म से पृथक् इनका अस्तित्व नहीं है, ये ब्रह्म की सेवा करने के लिए ही हैं। इस दर्शन में अद्वैत
की जगह बहुत्व की कल्पना है परंतु ब्रह्म अनेक में एकता स्थापित करनेवाला एक तत्व
है। बहुत्व से विशिष्ट अद्वय ब्रह्म का प्रतिपादन करने के कारण इसे विशिष्टाद्वैत
कहा जाता है।
विशिष्टाद्वैत मत में भेदरहित ज्ञान असंभव माना गया है।
इसीलिए शंकर का शुद्ध अद्वय ब्रह्म इस मत में ग्राह्य नहीं है। ब्रह्म सविशेष है
और उसकी विशेषता इसमें है कि उसमें सभी सत् गुण विद्यामान हैं। अत: ब्रह्म वास्तव
में शरीरी ईश्वर है। सभी वैयक्तिक आत्माएँ सत्य हैं और इन्हीं से ब्रह्म का शरीर
निर्मित है। ये ब्रह्म में, मोक्ष हाने पर, लीन नहीं होतीं; इनका अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहता है। इस तरह ब्रह्म अनेकता
में एकता स्थापित करनेवाला सूत्र है। यही ब्रह्म प्रलय काल में सूक्ष्मभूत और
आत्माओं के साथ कारण रूप में स्थित रहता है परंतु सृष्टिकाल में सूक्ष्म स्थूल रूप
धारण कर लेता है। यही कार्य ब्रह्म कहा जाता है। अनंत ज्ञान और आनंद से युक्त
ब्रह्म को नारायण कहते हैं जो लक्ष्मी (शक्ति) के साथ बैकुंठ में निवास करते हैं।
भक्ति के द्वारा इस नारायण के समीप पहुँचा जा सकता है। सर्वोत्तम भक्ति नारायण के
प्रसाद से प्राप्त होती है और यह भगवद्ज्ञानमय है। भक्ति मार्ग में जाति-वर्ण-गत
भेद का स्थान नहीं है। सबके लिए भगवत्प्राप्ति का यह राजमार्ग है।
द्वैत (मध्व) वेदान्त (1199-1303)
भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक
मध्वाचार्य का जन्म कर्णाटक के राजपथ नगर में हुआ। इसका वर्तमान नाम कल्याणपुर है।
यह उडुपी के समीप है। इनके पिता का नाम मध्वगेद भट्ट तथा गुरु का नाम
अच्युतप्रेक्ष था। भारत के दार्शनिकों में से एक थे। इनका अन्य नाम पूर्णप्रज्ञ व
आनंदतीर्थ भी हैं। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है (हनुमान और भीम
क्रमशः प्रथम व द्वितीय अवतार थे)। उन्होंने तत्ववाद का प्रवर्तन किया जिसे
द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है। द्वैतवाद,
वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में एक है।
आचार्य
मध्व लिखित ग्रन्थ
मध्वाचार्य ने सैंतीस
ग्रन्थों की रचना की। इन्होने द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और अपने
वेदांत के व्याख्यान की तार्किक पुष्टि के लिये एक स्वतंत्र ग्रंथ 'अनुव्याख्यान'
भी लिखा। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएँ, महाभारत
के तात्पर्य की व्याख्या करनेवाला ग्रंथ महाभारततात्पर्यनिर्णय तथा
श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका ये इनके मुख्य ग्रंथ है। ऋग्भाष्य (ऋग्वेद 1.1- 40) के
चालीस सूक्तों पर भी एक टीका लिखी । ऐसा लगता है कि ये अपने मत के समर्थन के लिये
प्रस्थानत्रयी की अपेक्षा पुराणों पर अधिक निर्भर है।
आचार्य
मध्व के सिद्धान्त
श्री मध्वाचार्य ने प्रस्थानत्रयी ग्रंथों से
अपने द्वैतवाद सिद्धांत का विकास किया। यह `सद्वैष्णव´
भी कहा जाता है,
क्योंकि यह श्री रामानुजाचार्य के श्री वैष्णवत्व से अलग
है।
श्री मध्वाचार्य ने `'पंच
भेद' का अध्ययन किया जो `अत्यन्त भेद दर्शनम्´
भी कहा जाता है। उसकी पांच विशेषतायें हैं :
(क) भगवान और व्यक्तिगत आत्मा की पृथकता,
(ख) परमात्मा और पदार्थ की पृथकता,
(ग) जीवात्मा एवं पदार्थ की पृथकता,
(घ) एक आत्मा और दूसरी आत्मा में पृथकता तथा
(ङ) एक भौतिक वस्तु और अन्य भौतिक वस्तु में पृथकता।
अत्यन्त
भेद दर्शनम् का वर्गीकरण पदार्थ रूप में इस प्रकार भी किया गया है :
(अ) स्वतंत्र
(आ) आश्रित
स्वतंत्र वह है जो पूर्ण
रूपेण स्वतंत्र है। जो भगवान या सनातन सत्य है। लेकिन जीवात्मा और जगत् भगवान पर
आश्रित हैं। इसलिये भगवान उनका नियंत्रण करते हैं। परमात्मा स्वतंत्र हैं। इसलिए
उनका वर्गीकरण असम्भव है। आश्रित तत्त्व सकारात्मक एवं नकारात्मक रूप में विभाजित
किये जाते हैं। सकारात्मक को भी चेतन (जैसे आत्मा) और अचेतन (जैसे वे पदार्थ) में
वर्गीकृत किया जा सकता है।
अचेतन तत्त्व को परिभाशित
करने के पहले मध्वाचार्य स्वतंत्र और आश्रित के बारे में बताते हैं जो संसार से
नित्य मुक्त हैं। इस विचारधारा के अनुसार विष्णु स्वतंत्र हैं जो विवेकी और संसार
के नियन्ता हैं। उनकी शक्ति लक्ष्मी हैं जो नित्य मुक्त हैं। कई व्यूहों एवं
अवतारों के रूपों में हम विष्णु को पा सकते हैं (उन तक पहुँच सकते हैं)। उसी
प्रकार अत्यन्त आश्रित लक्ष्मी भी विष्णु की शक्ति हैं और नित्य भौतिक शरीर लिये
ही कई रूप धारण कर सकती हैं। वह दुख-दर्द से परे हैं। उनके पुत्र ब्रह्मा और वायु
हैं। `प्रकृति´ शब्द प्र = परे + कृति = सृष्टि का संगम है।
मध्वाचार्य ने सृष्टि और
ब्रह्म को अलग माना है। उनके अनुसार विष्णु भौतिक संसार के कारण कर्ता हैं। भगवान
प्रकृति को लक्ष्मी द्वारा सशक्त बनाते हैं और उसे दृश्य जगत में परिवर्तित करते
हैं। प्रकृति भौतिक वस्तु,
शरीर एवं अंगों का भौतिक कारण है। प्रकृति के तीन पहलुओं से
तीन शक्तियाँ आविर्भूत हैं : लक्ष्मी,
भू (सरस्वती-धरती) और दुर्गा। अविद्या (अज्ञान) भी प्रकृति
का ही एक रूप है जो परमात्मा को जीवात्मा से छिपाती है।
मध्वाचार्य जी का विश्वास
है कि प्रकृति से बनी धरती माया नहीं,
बल्कि परमात्मा से पृथक सत्य है। यह दूध में छिपी दही के
समान परिवर्तन नहीं है,
न ही परमात्मा का रूप है। इसलिए यह अविशेष द्वैतवाद ही है।
मध्वाचार्य जी ने
रामानुजाचार्य का आत्माओं का वर्गीकरण को स्वीकार किया। जैसे :--
(क) नित्य - सनातन (लक्ष्मी के समान)
(ख) मुक्त - देवता,
मनुश्य,
ॠषि,
सन्त और महान व्यक्ति
(ग) बद्ध - बँधे व्यक्ति
मध्वाचार्य ने इनके साथ और
दो वर्ग जोड़ा जो मोक्ष के योग्य है और जो मोक्ष के योग्य नहीं है :
1.
पूर्ण समर्पित लोग,
बद्ध भी मोक्ष के लिए योग्य हैं।
2.
जो मोक्ष के लिए योग्य नहीं हैं। वे हैं:
(क) नित्य संसारी : सांसारिक चक्र में बद्ध।
(ख) तमोयोग्य : जिन्हें नरक जाना है।
इस वर्गीकरण के अनुसार
जीवात्मा का एक अलग अस्तित्व है। इस प्रकार एक आत्मा दूसरी आत्मा से भिन्न होती
हैं। इसका अर्थआत्मा अनेक हैं। जीवात्मा परमात्मा एवं प्रकृति से भिन्न होने से
परमात्मा के निर्देश पर आश्रित है। उनके पिछले जन्मों के आधार (कर्मो) पर परमात्मा
उन्हें प्रेरित करते हैं। पिछले कर्मो के अनुसार जीवात्मा कष्ट झेलते हैं, जिससे
उनकी आत्मा पवित्र हो जाती है और जीवन-मरण से मुक्त होकर आनन्द का अनुभव करती हैं
जो आत्मा की सहजता है। आनन्दानुभूति में जीवात्मा भिन्न होती है। लेकिन उनमें कोई
वैमनस्य नहीं होता और वे पवित्र होकर परब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन वे
परमात्मा के बराबर नहीं हो सकतीं। वे परमात्मा की सेवा के लायक हो जाती हैं। नवधा
भक्ति मार्ग से आत्मा परमात्मा की कृपा से मुक्ति प्राप्त कर लेती है।
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