पम्पा
सरोवर में राम हनुमान भेंट -
कमल,
उत्पल तथा मत्स्यों से परिपूर्ण पम्पा सरोवर के पास पहुँचने पर वहाँ
के रमणीय दृश्यों को देख कर राम को फिर सीता का स्मरण हो आया और वे पुनः विलाप
करने लगे।
उन्होंने लक्ष्मण से कहा, "हे सौमित्र! इस पम्पा सरोवर का जल
वैदूर्यमणि के समान स्वच्छ एव श्याम है। इसमें खिले हुये कमल पुष्प और क्रीड़ा करते
हुये जल पक्षी कैसे सुशोभित हो रहे हैं! चैत्र माह ने वृक्षों को पल्लवित कर फूलों
और फलों से समृद्ध कर दिया है। चारों ओर मनोहर सुगन्ध बिखर रही है। यदि आज सीता भी
अपने साथ होती तो इस दृश्य को देख कर उसका हृदय कितना प्रफुल्लित होता। ऐसा प्रतीत
होता है कि वसन्तरूपी अग्नि मुझे जलाकर भस्म कर देगी। हा सीते! तुम न जाने किस दशा
में रो-रो कर अपना समय बिता रही होगी। मैं कितना अभागा हूँ कि तुम्हें अपने साथ वन
में ले आया, परन्तु तुम्हारी रक्षा न कर सका। हा!
पर्वत-शिखरों पर नृत्य करते हुये मोरों के साथ कामातुर हुई मोरनियाँ कैसा नृत्य कर
रहीं हैं। हे लक्ष्मण! जिस स्थान पर सीता होगी, यदि वहाँ भी
इसी प्रकार वसन्त खिला होगा तो वह उसके विरह-विदग्ध हृदय को कितनी पीड़ा पहुँचा रहा
होगा। वह अवश्य ही मेरे वियोग में रो-रो कर अपने प्राण दे रही होगी। मैं जानता हूँ,
वह मेरे बिना पानी से बाहर निकली हुई मछली की भाँति तड़प रही होगी।
उसकी वही दशा हो रही होगी जो आज मेरी हो रही है, अपितु मुझसे
अधिक ही होगी क्योंकि स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक भावुक और कोमल होती हैं। यह
सम्पूर्ण दृश्य इतना मनोरम है कि यदि सीता मेरे साथ होती तो इस स्थान को छोड़ कर
मैं कभी अयोध्या न जाता। सदैव उसके साथ यहीं रमण करता। किन्तु यह तो मेरा
स्वप्नमात्र है। आज तो यह अभागा प्यारी सीता के वियोग में वनों में मारा-मारा फिर
रहा है। जिस सीता ने मेरे लिये महलों के सुखों का परित्याग किया, मैं उसीकी वन में रक्षा नहीं कर सका। मैं कैसे यह जीवन धारण करूँ? मैं अयोध्या जा कर किसी को क्या बताउँगा? माता
कौसल्या को क्या उत्तर दूँगा? मुझे कुछ सुझाई नहीं देता। मैं
इस विपत्ति के पहाड़ के नीचे दबा जा रहा हूँ। मुझे इस विपत्ति से छुटकारे का कोई
उपाय नहीं सूझ रहा है। मैं यहीं पम्पासर में डूब कर अपने प्राण दे दूँगा। भाई
लक्ष्मण! तुम अभी अयोध्या लौट जाओ। मैं अब जनकनन्दिनी सीता के बिना जीवित नहीं रह
सकता।"
बड़े भाई की यह दशा देख कर लक्ष्मण बोले, "हे पुरुषोत्तम राम! आप
शोक न करें। हे तात रघुनन्दन! आप यदि रावण पाताल में या उससे भी अधिक दूर चला जाये
तो भी वह अब किसी भी तरह से जीवित नहीं रह सकता। आप पहले उस पापी राक्षस का पता
लगाइये। फिर वह सीता को वापस करेगा या अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। आप तो
अत्यन्त धैर्यवान पुरुष हैं। आपको ऐसी विपत्ति में सदैव धैर्य रखना चाहिये। हम लोग
अपने धैर्य, उत्साह और पुरुषार्थ के बल पर ही रावण को परास्त
कर के सीता को मुक्त करा सकेंगे। आप धैर्य धारण करें।"
लक्ष्मण के इस प्रकार से समझाने पर अत्यन्त सन्तप्त राम ने
शोक और मोह का परित्याग कर के धैर्य धारण किया। वे पम्पा सरोवर को लाँघ कर आगे
बढ़े।
चलते-चलते जब वे ऋष्यमूक पर्वत के निकट पहुँचे तो अपने
साथियों के साथ उस पर्वत पर विचरण करने वाले बलवान वानरराज सुग्रीव ने इन दोनों
तेजस्वी युवकों को देखा।
इन्हें देख कर सुग्रीव के मन में शंका हुई और उन्होंने अपने
मन्त्रियों से कहा,
"निश्चय ही वालि ने इन दोनों धनुर्धारी वीरों को छद्मवेश में
भेजा है।"
भयभीत होकर सुग्रीव अपने मन्त्रियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत
के शिखर चले गये।
सुग्रीव को इस प्रकार चिन्तित देख कर वाक्पटु हनुमान बोले, "हे वानराधिपते! वालि तो
शापवश यहाँ आ ही नहीं सकता, आप सहसा ऐसे चिन्तित क्यों हो
रहे हैं?"
हनुमान के प्रश्न को सुन कर सुग्रीव बोले, "मुझे ऐसा प्रतीत होता है
कि ये दोनों पुरुष वालि के भेजे हये गुप्तचर हैं और तपस्वियों का भेष धारण कर के
हमारी खोज में आये हैं। हमें इनकी ओर से निश्चिन्त नहीं होना चाहिये। हनुमान! तुम
वेष बदल कर इनके पास जाओ और इनका सम्पूर्ण भेद ज्ञात करो। यदि मेरा सन्देह ठीक हो
तो शीघ्र इस विषय में कुछ करना।"
सुग्रीव का निर्देश पा कर हनुमान भिक्षु का भेष धारण कर
राम-लक्ष्मण के पास पहुँचे। उन दोनों को प्रणाम करके वे अत्यन्त विनीत एवं मृदु
वाणी में बोले, "हे वीरों! आप दोनों सत्यपराक्रमी एवं देवताओं के समान प्रभावशाली जान पड़ते
हैं। आप लोग इस वन्य प्रदेश में किसलिये आये हैं? आपके अंगों
की कान्ति सुवर्ण के समान प्रकाशित हो रही है। आपकी विशाल भुजाओं और वीर वेश को
देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि आप इन्द्र को भी परास्त करने की क्षमता रखते हैं,
परन्तु फिर भी आपका मुखमण्डल कुम्हलाया हुआ है और आप ठण्डी साँसे भर
रहे हैं। इसका क्या कारण है? कृपया आप अपना परिचय दीजिये। आप
इस प्रकार मौन क्यों हैं? यहाँ पर्वत पर वानरश्रेष्ठ सुग्रीव
रहते हैं। उनके भाई वालि ने उन्हें घर से निकाल दिया है। वानरशिरोमणि सुग्रीव आप
दोनों से मित्रता करना चाहते हैं। उन्हीं की आज्ञा से मैं आपका परिचय प्राप्त करने
के लिये यहाँ आया हूँ। मैं वायुदेवता का पुत्र हूँ और मेरा नाम हनुमान है। मैं भी
वानर जाति का हूँ। अब आप कृपया अपना परिचय दीजिये। मैं सुग्रीव का मन्त्री हूँ और
इच्छानुकूल वेष बदलने की क्षमता रखता हूँ। मैंने आपको सब कुछ बता दिया है। आशा है
आप भी अपना परिचय दे कर मुझे कृतार्थ करेंगे और वन में पधारने का कारण
बतायेंगे।"
हनुमान की चतुराई भरी स्पष्ट बातों को सुन कर राम ने
लक्ष्मण से कहा, "हे सौमित्र! इनकी बातों से मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि ये महामनस्वी
वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं और उन्हीं के हित के लिये यहाँ आये हैं। इसलिये तुम
निर्भय हो कर इन्हें सब कुछ बता दो।"
राम की आज्ञा पा कर लक्ष्मण हनुमान से बोले, "हे वानरश्रेष्ठ! सुग्रीव
के गुणों से हम परिचित हो चुके हैं। हम उन्हें ही खोजते हुये यहाँ तक आये हैं। आप
सुग्रीव के कथनानुसार जब मैत्री की बात चला रहे हैं वह हमें स्वीकार है। हम
अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र हैं। ये श्री रामचन्द्र जी उनके ज्येष्ठ पुत्र और
मैं इनका छोटा भाई लक्ष्मण हूँ। चौदह वर्ष का वनवास पाकर ये वन में रहने के लिये
अपनी धर्मपत्नी सीता और मेरे साथ आये थे। रावण ने सीता जी का हरण कर लिया है। इसी
विचार से कि सम्भवतः वे हमारी सहायता कर सकें, हम लोग महाराज
सुग्रीव के पास आये हैं। हे वानरराज! जिस चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के चरणों में
सम्पूर्ण भूमण्डल के राजा-महाराजा सिर झुकाते थे और उनके शरणागत होते थे, उन्हीं महाराज के ज्येष्ठ पुत्र आज समय के फेर से सुग्रीव की शरण में आये
हैं। ताकि महाराज सुग्रीव अपने दलबल सहित इनकी सहायता करें।"
इतना कहते हुये लक्ष्मण का कण्ठ अवरुद्ध हो गया।
लक्ष्मण के वचन सुन कर हनुमान बोले, "हे लक्ष्मण! आप लोगो के
आगमन से आज हमारा देश पवित्र हुआ। हम लोग आपके दर्शनों से कृतार्थ हुये। जिस
प्रकार आप लोग विपत्ति में हैं, उसी प्रकार सुग्रीव पर भी
विपत्ति की घटाएँ छाई हुईं हैं। वालि ने उनकी पत्नी का हरण कर लिया है तथा उन्हें
राज्य से निकाल दिया है। इसीलिये वे इस पर्वत पर निर्जन स्थान में निवास करते हैं।
फिर भी मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि वे सब प्रकार से आपकी सहायता करेंगे।"
इतना कह कर हनुमान बड़े आदर से रामचन्द्र और लक्ष्मण को सुग्रीव के पास ले गये।
राम
की सुग्रीव मैत्री -
हनुमान अपने साथ राम और लक्ष्मण को लेकर किष्किन्धा पर्वत
के मलय शिखर पर, जहाँ पर कि सुग्रीव अपने अन्य मन्त्रियों के साथ बैठे थे, ले गये। सुग्रीव से दोनों भाइयों का परिचय कराते हुये हनुमान ने कहा,
"हे महाप्राज्ञ! अयोध्या के महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र
महापराक्रमी श्री रामचन्द्र जी अपने अनुज लक्ष्मण जी के साथ यहाँ पधारे हैं। इनके
पंचवटी में निवासकाल में इनकी पत्नी सीता जी को लंका का राजा रावण चुरा ले गया।
उन्हीं की खोज के लिये ये आपकी सहायता चाहते हैं। ये आपसे मित्रता करने की इच्छा
रखते हैं। आपको इनकी मित्रता स्वीकार कर इनका यथोचित सत्कार करना चाहिये क्योंकि
ये बड़े गुणवान, पराक्रमी और धर्मात्मा हैं। ये दोनों हमारे
लिये परम पूजनीय हैं।"
राम और लक्ष्मण का परिचय पाकर प्रसन्नचित्त सुग्रीव बोले, "हे प्रभो! आप धर्मज्ञ,
परम तपस्वी और सब पर दया करने वाले हैं। आप नर होकर भी मुझ वानर से
मित्रता कर रहे हैं यह मेरा परम सौभाग्य है। आपकी मित्रता से मुझे ही उत्तम लाभ
होगा। मेरा हाथ आपकी मैत्री के लिये फैला हुआ है, आप इसे
अपने हाथ में लेकर परस्पर मैत्री का अटूट सम्बन्ध बना दें।"
सुग्रीव के वचन सुन कर राम ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सुग्रीव
के हाथ को अपने हाथ में लिया फिर प्रेमपूर्वक सुग्रीव को छाती से लगा लिया।
हनुमान ने भिक्षुरूप त्याग कर अग्नि प्रज्वलित की। राम और
सुग्रीव ने अग्नि की प्रदक्षिणा कर मैत्री की शपथ ली और दोनों एक दूसरे के मित्र
बन गये।
इसके पश्चात् राम और सुग्रीव अपने-अपने आसनों पर बैठ कर
परस्पर वार्तालाप करने लगे। सुग्रीव ने कहा, "हे राम! मेरे ज्येष्ठ भ्राता वालि ने
मुझे घर से निकाल कर मेरी पत्नी का अपहरण कर लिया है और मेरा राज्य भी मुझसे छीन
लिया है। वह अत्यधिक शक्तिशाली है। मैं उससे भयभीत हो कर ऋष्यमूक पर्वत के इस
मलयगिरि प्रखण्ड में निवास कर रहा हूँ। आप अत्यन्त पराक्रमी और तेजस्वी हैं। आप
मुझे अभय दान देकर वालि के भय से मुक्त करें।"
सुग्रीव के दीन वचन सुन कर राम बोले, "हे सुग्रीव! मित्र तो
उपकाररूप फल देने वाला होता है, मैं अपने तीक्ष्ण बाणों से
तुम्हारी पत्नी के हरण करने वाले वालि का वध कर दूँगा। अब तुम उसे मरा हुआ ही
समझो।"
सुग्रीव ने प्रसन्नतापूर्वक कहा, "हे राम! मेरे मन्त्रियों
में श्रेष्ठ सचिव हनुमान मुझे आपकी विपत्ति की सम्पूर्ण कथा बता चुके हैं। आपकी
पत्नी सीता आकाश या पाताल में कहीं भी हो, मैं अवश्य उनका
पता लगवाउँगा। रावण तो क्या, इन्द्र आदि देवता भी सीता को
मेरे वानरों की दृष्टि से छिपा कर नहीं रख सकते। राघव! कुछ ही दिनों पूर्व एक
राक्षस एक स्त्री को लिये जा रहा था। उस समय हम इसी पर्वत पर बैठे थे। तब हमने उस
स्त्री के मुख से 'हा राम! हा लक्ष्मण!' शब्द सुने थे। मेरा अनुमान है कि वह सीता ही थी। उसे मैं भली-भाँति देख
नहीं पाया। हमें बैठे देख कर उसने कुछ वस्त्राभूषण नीचे फेंके थे। वे हमारे पास
सुरक्षित रखे हैं। आप उन्हें पहचान कर देखिये, क्या वे सीता
जी के ही है।"
यह कह कर सुग्रीव ने एक वानर को वस्त्राभूषणों को लाने की
आज्ञा दी। उन वस्त्राभूषणों को देखते ही राम का धीरज जाता रहा। वे नेत्रों से
अश्रु बहाते हुये शोकविह्वल हो गये और धैर्य छोड़ कर पृथ्वी पर गिर पड़े।
चेतना लौटने पर वे लक्ष्मण से बोले, "हे लक्ष्मण! सीता के इन
आभूषणों को पहचानो। राक्षस के द्वारा हरे जाने पर सीता ने इन आभूषणों पृथ्वी पर
गिरा दिया होगा।"
लक्ष्मण ने कहा, "भैया! इन आभूषणों में से न तो मैं
हाथों के कंकणों को पहचानता हूँ, न गले के हार को और न ही
मस्तक के किसी अन्य आभूषणों को पहचानता हूँ। क्योंकि मैंने आज तक सीता जी के हाथों
और मुख की ओर कभी दृष्टि नहीं डाली। हाँ, उनके चरणों की
नित्य वन्दना करता रहा हूँ इसलिये इन नूपुरों को अवश्य पहचानता हूँ, ये वास्तव में उन्हीं के हैं।"
राम-सुग्रीव
वार्तालाप -
राम ने सुग्रीव से कहा, "हे सुग्रीव! मुझे बताओ कि वह भयंकर
रूपधारी राक्षस मेरी प्राणेश्वरी सीता को लेकर किस दिशा में गया है? तुम शीघ्र पता लगाओं कि वह राक्षस कहाँ रहता है? वानरराज!
धोखे में डालकर और मेरा अपमान करके मेरी प्रियतमा को अपहरण करने वाला वह निशाचर
मेरा घोर शत्रु है। मैं आज ही उसका वध कर के सीता को मुक्त कराउँगा।"
राम के शोक से पीड़ित वचन को सुन कर सुग्रीव ने उन्हें
आश्वासन दिया, "हे राम! मैं नीचकुल में उत्पन्न उस पापात्मा राक्षस की शक्ति और गुप्त
स्थान से परिचित नहीं हूँ किन्तु मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं शीघ्र ही ऐसा
यत्न करूँगा कि मिथिलेश कुमारी सीता आपको मिल जायें। अतः आप धैर्य धारण करें। इस
प्रकार से व्याकुल होना व्यर्थ है। व्याकुल होने पर मनुष्य की बुद्धि गम्भीर नहीं
रह पाती। आपको इस प्रकार से अधीर होना शोभा नहीं देता। मुझे भी पत्नी के विरह का
महान कष्ट प्राप्त हुआ है तथापि मैं पत्नी के लिये निरन्तर शोक नहीं करता। जब मैं
वानर होकर धैर्य धारण कर सकता हूँ तो आप तो नर हैं, महात्मा
हैं, सुशिक्षित हैं, आप मुझसे भी अधिक
धैर्य धारण कर सकते हैं। मैं आपको उपदेश नहीं दे रहा हूँ, सिर्फ
मित्रता के नाते आपके हित में सलाह दे रहा हूँ।"
सुग्रीव की बात सुन कर राम नेत्रों से अश्रु पोंछ कर बोले, "हे वानरेश! तुमने वही
किया है जो एक स्नेही और हितैषी मित्र को करना चाहिये। तुम्हारा कार्य सर्वथा उचित
है। सखे! तुम्हारे इस आश्वासन ने मेरी चिन्ता को दूर करके मुझे स्वस्थ बना दिया
है। तुम जैसे स्नेही मित्र बहुत कम मिलते हैं। तुम सीता का पता लगाने में मेरी
सहायता करो और मैं तुम्हारे सामने ही दुष्ट वालि का वध करूँगा। उसके विषय में तुम
मुझे सारी बातें बताओ। विश्वास करो, वालि मेरे हाथों से नहीं
बच सकता।"
राम की प्रतिज्ञा से सन्तुष्ट हो कर सुग्रीव बोले, "हे रघुकुलमणि! वालि ने
मेरा राज्य और मेरी प्यारी पत्नी मुझसे छीन ली है। अब वह दिन रात मुझे मारने का
उपाय सोचा करता है। उसके भय के कारण ही मैं इस पर्वत पर निवास करता हूँ। उससे ही
भयभीत होकर मेरे सब साथी एक एक-करके मेरा साथ छोड़ गये हैं। अब ये केवल चार मित्र
मेरे साथ रह गये हैं। वालि अत्यन्त बलवान है। उसके भय से मेरे प्राण सूख रहे हैं।
बह इतना बलवान है कि उसने दुंदुभि नामक बलिष्ठ राक्षस को देखते देखते मार डाला। जब
वह साल के वृक्ष को अपनी भुजाओं में भर कर झकझोरता है तो उसके सारे पत्ते झड़ जाते
हैं। उसके असाधारण बल को देख कर मुझे संशय होता है कि आप उसे मार पायेंगे।"
सुग्रीव की आशंका को सुन कर लक्ष्मण ने मुस्कुराते हुये कहा, "हे सुग्रीव! तुम्हें इस
बात का विश्वास कैसे होगा कि श्री रामचन्द्र जी वालि को मार सकेंगे?"
यह सुन कर सुग्रीव बोला, " सामने जो साल के सात वृक्ष खड़े हैं
उन सातों को एक-एक करके वालि ने बींधा है, यदि राम इनमें से
एक को भी बींध दें तो मुझे आशा बँध जायेगी। ऐसी बात नहीं है कि मुझे राम की शक्ति
पर पूर्ण विश्वास नहीं है किन्तु मैं केवल वालि से भयभीत होने के कारण ही ऐसा कह
रहा हूँ।"
सुग्रीव के ऐसा कहने पर राम ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और
बाण छोड़ दिया, जिसने भीषण टंकार करते हुये एक साथ सातों साल वृक्षों को और पर्वत शिखर को
भी बींध डाला।
राम के इस पराक्रम को देख कर सुग्रीव विस्मित रह गया और
उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए बोला, "प्रभो! वालि को मार कर आप मुझे अवश्य
ही निश्चिन्त कर दे।"
वालि
का वध -
तदन्तर वे सब लोग वालि की राजधानी किष्किन्धापुरी में गये।
वहाँ पहुँच कर राम एक गहन वन में ठहर गये और सुग्रीव से कहा, "तुम वालि को युद्ध के
लिये ललकारो और निर्भय हो कर युद्ध करो।"
राम के वचनों से उत्साहित हो कर सुग्रीव ने वालि को युद्ध
करने के लिये ललकारा। सुग्रीव के इस सिंहनाद को सुन कर वालि को अत्यन्त क्रोध आया।
क्रोधित वालि आँधी के वेग से बाहर आया और सुग्रीव पर टूट पड़ा। वालि और सुग्रीव में
भयंकर युद्ध छिड़ गया। उन्मत्त हुये दोनों भाई एक दूसरे पर घूंसों और लातों से
प्रहार करने लगे। श्री रामचन्द्र जी ने वालि को मारने कि लिये अपना धनुष सँभाला
परन्तु दोनों का आकार एवं आकृति एक समान होने के कारण वे सुग्रीव और वालि में भेद
न कर सके। इसलिये उन्होंने बाण छोड़ना स्थगित कर दिया। वालि की मार न सह सकने के
कारण सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत की ओर भागा। राम लक्ष्मण तथा अन्य वानरों के साथ
सुग्रीव के पास पहुँचे। राम को सम्मुख पा कर उसने उलाहना देते हुये कहा, "मुझे युद्ध के लिये भेज
कर आप पिटने का तमाशा देखते रहे। बताइये आपने ऐसा क्यों किया? यदि आपको मेरी सहायता नहीं करनी थी तो मुझसे पहले ही स्पष्ट कह देना चाहिये
था कि मैं वालि को नहीं मारूँगा, मैं उसके पास जाता ही
नहीं।"
सुग्रीव के क्रुद्ध शब्द सुन कर रामचन्द्र ने बड़ी नम्रता से
कहा, "सुग्रीव! क्रोध त्यागो
और मेरी बात सुनो। तुम दोनों भाई रंग-रूप, आकार, गति और आकृतियों में एक समान हो अतः मैं तुम दोनों में अन्तर नहीं कर सका
और मैंने बाण नहीं छोड़ा। यदि मेरा बाण वालि को लगने के स्थान पर तुम्हें लग जाता
तो मैं जीवन भर किसी को मुख दिखाने लायक नहीं रहता। वानरेश्वर! अपनी पहचान के लिये
तुम कोई चिह्न धारण कर लो जिससे मैं तुम्हें पहचान लूँ और फिर से युद्ध के लिये
जाओ।"
इतना कहकर वे लक्ष्मण से बोले, "हे लक्ष्मण! यह उत्तम
लक्षणों से युक्त गजपुष्पी लता फूल रहे है। इसे उखाड़ कर महामना सुग्रीव के गले में
पहना दो।"
लक्ष्मण ने वैसा ही किया और सुग्रीव फिर से युद्ध करने चला।
इस बार सुग्रीव ने दूने उत्साह से सिंहनाद करते हुये घोर गर्जना
की जिसे सुन कर वालि आँधी के वेग से बाहर की ओर दौड़ने को उद्यत हुआ। किन्तु उसकी
पत्नी तारा ने भयभीत होकर वालि को रोकते हुये कहा, "हे वीरश्रेष्ठ! अभी आप का युद्ध के
लिये जाना श्रेयस्कर नहीं है। सुग्रीव एक बार मार खा कर भाग जाने के पश्चात् फिर
युद्ध करने के लिये लौटा है। इससे मेरे मन में शंका उत्पन्न हो रही है। ऐसा प्रतीत
होता है कि उसे कोई प्रबल सहायक मिल गया है और वह ऊसीके बल पर आपको ललकार रहा है।
मुझे कुमार अंगद से सूचना मिल चुकी है कि अयोध्या के अजेय राजकुमारों राम और
लक्ष्मण के साथ उसकी मैत्री हो गई है। सम्भव है वे ही उसकी सहायता कर रहे हों। राम
के पराक्रम के विषय में तो मैंने भी सुना है। वे शत्रुओं को देखते-देखते धराशायी
कर देते हैं। यदि वे स्वयं सुग्रीव की सहायता कर रहे हैं तो उनसे लड़ कर आपका जीवित
रहना कठिन है। इसलिये उचित यही है कि इस अवसर पर आप बैर छोड़ कर सुग्रीव से मित्रता
कर लीजिये। उसे युवराज पद दे दीजिये। वह आपका छोटा भाई है और इस संसार में भाई के
समान हितू कोई दूसरा नहीं होता। उससे इस समय मैत्री करने में ही आपका कल्याण
है।"
तारा के इस प्रकार समझाने वालि ने कहा, "वरानने! मैं सुग्रीव की
ललकार को सुन कर कायरों की भाँति घर में छिप कर नहीं बैठ सकता और न ललकारने वाले
से भयभीत हो कर उसके सम्मुख मैत्री का हाथ ही बढ़ा सकता हूँ। श्री रामचन्द्र जी के
विषय में मैं भी जानता हूँ। वे धर्मात्मा हैं और कर्तव्याकर्तव्य को समझने वाले
हैं। वे पापकर्म नहीं कर सकते। तुमने मेरे प्रति अपने स्नेह एवं भक्ति का प्रदर्शन
कर दिया। अब मुझे मत रोको। मैं सुग्रीव का सामना अवश्य करूँगा और उसके घमण्ड को
चूर चूर कर डालूँगा। युद्ध में मैं उससे विजय प्राप्त करूँगा मगर उसके प्राण नहीं
लूँगा।"
यह कह कर वालि सुग्रीव के पास पहुँच कर उससे युद्ध करने
लगा। दोनों एक दूसरे पर घूंसों और लातों से प्रहार करने लगे। जब राम ने देखा कि
सुग्रीव की शक्ति क्षीण होते जा रही है तो उन्होंने एक विषधर सर्प की भाँति बाण को
धनुष पर चढ़ा कर वालि को लक्ष्य करके छोड़ दिया। टंकारध्वनि के साथ वह बाण वालि के
वक्ष में जाकर लगा जिससे वह बेसुध हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
वालि-राम
संवाद -
वालि को पृथ्वी पर गिरते देख राम और लक्ष्मण उसके पास जा कर
खड़े हो गये। जब वालि की चेतना लौटी और उसने दोनों भाइयों को अपने सम्मुख खड़े देखा
तो वह कठोर शब्दों में बोला, "हे रघुनन्दन! आपने छिप कर जो मुझ पर आक्रमण किया,
उससे आपने कौन सा गुण प्राप्त कर लिया? किस
महान यश का उपार्रजन कर लिया? यद्यपि तारा ने सुग्रीव की और
आपकी मैत्री के विषय में मुझे बताया था, परन्तु मैंने आपकी
वीरता, शौर्य, पराक्रम, धर्मपरायणता, न्यायशीलता आदि गुणों को ध्यान में
रखते हुये उसकी बात नहीं मानी थी और कहा था कि न्यायशील राम कभी अन्याय नहीं
करेंगे। आज मुझे ज्ञात हुआ कि आपकी मति मारी गई है। आप दिखावे के लिये धर्म का
चोला पहने हुए हैं, वास्तव में आप अधर्मी हैं। आप साधु पुरुष
के वेष में एक पापी हैं। मेरा तो आपके साथ कोई बैर भी नहीं है। फिर आपने यह
क्षत्रियों को लजाने वाला कार्य क्यों किया? आप नरेश हैं।
राजा के गुण साम, दाम, दण्ड, भेद, दान, क्षमा, सत्य, धैर्य और विक्रम होते हैं। कोई राजा किसी
निरपराध को दण्ड नहीं देता। फिर आपने मेरा वध क्यों किया है? हे राजकुमार! यदि आपने मेरे समक्ष आकर मुझसे युद्ध किया होता तो आप अवश्य
ही मेरे हाथों मारे गये होते। जिस उद्देश्य के लिये आप सुग्रीव की सहायता कर रहे
हैं उसी उद्देश्य को यदि आपने मुझसे कहा होता तो मैं एक ही दिन में मिथिलेश कुमारी
को ढूँढ कर आपके पास ला देता। आपकी पत्नी का अपहरण करने वाले दुरात्मा राक्षस रावण
के गले में रस्सी बाँध कर आपके समक्ष प्रस्तुत कर देता। आपने अधर्मपूर्वक मेरा वध
क्यों किया?"
वालि के कठोर वचनों को सुन कर रामचन्द्र ने कहा, "वानर! धर्म, अर्थ, काम और लौकिक सदाचार के विषय तुम्हें ज्ञान ही
नहीं है। तुम अपने वानरोचित चपलतावश तुम व्यर्थ ही मुझ पर क्रोधित हो रहे हो।
मैंने तुम्हारा वध अकारण या व्यक्तिगत बैरभाव के कारण से नहीं किया है। सौम्य!
पर्वतों, वनों और काननों से युक्त सम्पूर्ण भू-मण्डल
इक्ष्वाकु वंश के राजाओं की है। इस समय धर्मात्मा राजा भरत इस पृथ्वी का पालन कर
रहे हैं। उनकी आज्ञा से हम समपूर्ण पृथ्वी में विचरण करते हुए धर्म के प्रचार के
लिये साधुओं की रक्षा तथा दुष्टों का दमन कर रहे हैं। तुमने अपने जीवन में काम को
ही प्रधानता दिया और राजोचित मार्ग पर स्थिर नहीं रहे। छोटा भाई, पुत्र और शिष्य तीनों पुत्र-तु्ल्य होते हैं। तुमने इस धर्माचरण को त्याग
कर अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी रुमा का हरण किया जो धर्मानुसार तुम्हारी
पुत्रवधू हुई। उत्तम कुल में उत्पन्न क्षत्रिय और राजा का प्रतिनिधि होने के कारण
तुम्हारे इस महापाप का दण्ड देना मेरा कर्तव्य था। जो पुरुष अपनी कन्या, बहन अथवा अनुजवधू के पास कामबुद्धि से जाता है, उसका
वध करना ही उसके लिये उपयुक्त दण्ड माना गया है। इसीलिये मैंने तुम्हारा वध किया।
वानरश्रेष्ठ! अपने इस कार्य के लिये मेरे मन में किसी प्रकार संताप नहीं है। मैंने
तुम्हें तुम्हारे पिछले पापों का दण्ड दे कर आगे के लिये तुम्हें निष्पाप कर दिया
है। अब तुम निष्पाप हो कर स्वर्ग जाओगे।"
राम का तर्क सुन वालि ने हाथ जोड़कर कहा, "हे राघव! आपका कथन सत्य
है। मुझे अपनी मृत्यु पर दुःख नहीं है। मेरा पुत्र अंगद मुझे अत्यन्त प्रिय है और
मुझे केवल उसी की चिन्ता है। वह अभी बालक है। उसकी बुद्धि अभी परिपक्व नहीं हुई
है। उसे मैं आपकी शरण में सौंपता हूँ। आप इसे सुग्रीव की भाँति ही अभय दें,
यही आपसे मेरी प्रार्थना है।"
इतना कह कर वालि चुप हो गया और उसके प्राण पखेरू उड़ गये।
तारा
का विलाप -
जब तारा को वालि की मृत्यु का समाचार मिला तो वह अत्यन्त
उद्विग्न हो गई और रोती हुई उस स्थान पर आई जहाँ वालि का शव पड़ा था। तारा और अंगद
वालि के शव से लिपट कर बिलख-बिलख कर रोने लगे। उन दोनों दोनों को इस प्रकार रोते
देख सुग्रीव को अत्यन्त दुःख हुआ। उसके नेत्रों से अश्रु बहने लगे।
तारा वालि से लिपट कर विलाप कर रही थी, "हे आर्यपुत्र! आप जैसे
पराक्रमी वीर की राम ने छिप कर हत्या कर के अत्यन्त निंदनीय कर्म किया है। हे नाथ!
आप मौन हो कर क्यों पड़े हैं? आप अपने पुत्र अंगद को किसके
सहारे छोड़ गये? देखिये वह किस प्रकार से बिलख-बिलख कर रो रहा
है। हे आर्यपुत्र! आज आप ऐसे निर्मोही कैसे हो गये? हे
स्वामी! आप मुझे और अंगद को किसके भरोसे छोड़े जा रहे हैं? सुग्रीव!
आज तुम्हारा मनोरथ सफल हो गया। अब आनन्द से राज्य का सुख भोगो। आज मेरे पास पुत्र,
ऐश्वर्य सब कुछ होते हुये भी मैं विधवा के नाम से पुकारी जाकर संसार
में तिरस्कृत जीवन व्यतीत करूँगी। पुत्र अंगद! अपने धर्मप्रेमी पिता का अन्तिम
दर्शन कर लो। यमलोक को जाते हुये अपने पिता का हाथ जोड़ कर अभिवादन करो। देखो
स्वामी! आपका पुत्र हाथ जोड़ कर आपके सामने खड़ा है। उसे आशीर्वाद क्यों नहीं देते?
आज आपने इस युद्धरूपी यज्ञ में मेरे बिना कैसे भाग लिया। बिना
अर्द्धांगिनी के तो कोई यज्ञ पूरा नहीं होता।"
इस प्रकार तारा नाना प्रकार से से विलाप करने लगी। वालि के
वानर सरदारों ने बड़ी कठिनाई से उसे शव से अलग किया।
धनुष धारण किये राम को देख कर तारा उनके पास आकर बोली, "हे अमलकमलदललोचन राम! आप
वीर, तेजस्वी, धर्मात्मा और महान
दानवीर हैं। मैं आपसे एक दान माँगती हूँ। जिस बाण से आपने मेरे पति के प्राण लिये
हैं उसी बाण से मेरे प्राण भी हर लीजिये ताकि मैं मर कर अपने पति के पास पहुँच
जाऊँ। मेरे पतिदेव स्वर्ग में मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।"
तारा के मर्मस्पर्शी शब्दों को सुन कर रामचन्द्र बोले, "तारा! तेरा इस प्रकार
शोक और विलाप करना व्यर्थ है। सारा संसार परमात्मा के द्वारा बनाये गये विधान के
अनुसार चलता है। विधाता की ऐसी ही इच्छा थी, यह सोच कर तुम
धैर्य धारण करो। अंगद की कोई चिन्ता मत करो। वह आज से इस राज्य का युवराज होगा।
तुम्हारा पति वीर था, वह युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त
हुआ है; यह तुम्हारे लिये गौरव की बात है। शोक तज कर रोना
बन्द करो। रोने से दिवंगत आत्मा को कष्ट पहुँचता है।"
इस प्रकार राम ने तारा को अनेक प्रकार से धैर्य बँधाया। फिर
वे सुग्रीव से बोले,
"हे वीर! तारा और अंगद को साथ ले जा कर अब तुम वालि के अन्तिम
संस्कार की तैयारी करो। अंगद! तुम इस संस्कार के लिये घृत, चन्दन
आदि ले आओ। और हे तारा! तुम भी शोक को त्याग कर वालि के लिये अर्थी की तैयारी
कराओ।"
इस प्रकार रामचन्द्र जी ने सब से कह सुन कर वालि के अन्तिम
संस्कार की तैयारी करवाई।
वालि की शवयात्रा में बड़े-बड़े योद्धा और किष्किन्धा निवासी
रोते कलपते श्मशान घाट पहुँचे। स्त्रियों के करुणाजनक विलाप से सम्पूर्ण वातावरण
शोकाकुल प्रतीत हो रही थी। नदी के तट पर जब चिता बना कर वालि का शव उस पर रखा गया
तो सम्पूर्ण वातावरण एक बार फिर करुण चीत्कार से गूँज उठा। तारा पुनः वालि के शव
से लिपट गई। वह चिता पर ही उससे लिपट कर विलाप किये जा रही थी। बड़ी कठिनाई से उसे
को वालि के शव से पृथक किया गया। अन्त में अंगद ने चिता को अग्नि दी। जब वालि का
शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया तो श्री रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण, सुग्रीव, अंगद एवं अन्य प्रमुख वानरों के साथ मिल कर उसके लिये जलांजलि दी।
सुग्रीव
का अभिषेक -
वालि के अन्तिम संस्कार से निवृत हो जाने के पश्चात् हनुमान
ने हाथ जोड़कर श्री रामचन्द्र जी से निवेदन किया, "हे ककुत्स्थनन्दन! वानरराज सुग्रीव
को आपकी कृपा से उनके पूर्वजों का राज्य पुनः प्राप्त हो गया है। यह अत्यन्त कठिन
कार्य था जो कि आपके प्रसाद स्वरूप ही सम्पन्न हो पाया है। अब आप कृपा कर के उनका
राजतिलक कर अंगद को युवराज पर प्रदान करें।"
हनुमान की प्रार्थना सुन कर राम बोले, "हनुमन्! सौम्य! मैं पिता
की आज्ञा का पालन करते हुये वन में निवास कर रहा हूँ अतः चौदह वर्ष की अवधि पूर्ण
होने के पूर्व किसी नगर अथवा ग्राम में जाना मेरे लिये उचित नहीं है। अतएव तुम लोग
सुग्रीव के साथ नगर में जा कर राज्याभिषेक की प्रक्रिया पूर्ण करो।"
फिर राम ने सुग्रीव से कहा, "हे मित्र! तुम लौकिक और शास्त्रीय
व्यवहार के के ज्ञाता हो, नीतिवान और लोकव्यवहार कुशल हो,
इसलिये अपने भतीजे अंगद को युवराज का पद प्रदान करो। वह तुम्हारे
ज्येष्ठ भ्राता का पुत्र ही नहीं है, पराक्रमी और वीर भी है।
कुछ दिन तुम लोग राज्य में रह कर शासन व्यवस्था को सुव्यवस्थित करो और प्रजा की
भलाई में मन लगाओ। श्रावण का महीना आ गया है और वर्षा की ऋतु का आरम्भ हो चुका है।
अतः चार मास तक सीता की खोज सम्भव नहीं है। वर्षा की समाप्ति पर जानकी की खोज
कराना। मैं इस अवधि में लक्ष्मण सहित इसी पर्वत पर निवास करूँगा।"
राम से विदा हो कर सुग्रीव किष्किन्धा जा कर किष्किन्धापुरी
की शासन व्यवस्था में व्यस्त हो गये।
इस अन्तराल में राम लक्ष्मण के साथ प्रस्रवण पर्वत पर निवास
करने लगे। एक सुरक्षित कन्दरा को कुटिया का रूप दे कर वे लक्ष्मण से बोले, "हे भाई! हम वर्षा ऋतु
यहीं व्यतीत करेंगे। वृक्षादि से सुशोभित यह पर्वत अत्यन्त रमणीक है। इस गुफा के
निकट ही सरिता के प्रवाहित होने के कारण यह स्थान हमारे लिये और भी सुविधाजनक
रहेगा। यहाँ से किष्किन्धा भी अधिक दूर नहीं है, किन्तु इस
शान्तिप्रद वातावरण में भी जानकी का वियोग मुझे दुःखी कर रहा है। उसके बिना मेरे
हृदय में भयंकर पीड़ा होती है।"
इतना कह कर वे शोक में डूब गये।
अपने अग्रज को शोकातुर देख कर लक्ष्मण बोले, "हे वीर! इस प्रकार
व्यथित होने से कोई लाभ नहीं है। शोक से तो उत्साह नष्ट होता है। और उत्साहहीन हो
जाने पर रावण से हम कैसे प्रतिशोध ले सकेंगे? इसलिये आप
धैर्य धारण कीजिये। हम रावण को मार कर भाभी को अवश्य मुक्त करायेंगे। केवल कुछ
दिनों की बात और है।"
लक्ष्मण के वचनों से राम ने अपने हृदय को स्थिर किया और वे
प्रकृति की शोभा निहारने लगे। थोड़ी देर तक वे वर्षाकालीन प्राकृतिक दृश्यों का
अवलोकन करते रहे। फिर लक्ष्मण से बोले, "हे लक्ष्मण! देखो इस वर्षा ऋतु में
प्रकृति कितनी सुन्दर प्रतीत होती है। ये दीर्घाकार मेघ पर्वतों का रूप धारण किये
आकाश में दौड़ रहे हैं। इस वर्षा ऋतु में ये मेघ अमृत की वर्षा करेंगे। उस अमृत से
भूतलवासियों का कल्याण करने वाली नाना प्रकार की औषधियाँ, वनस्पति,
अन्न आदि उत्पन्न होंगे। इधर इन बादलों को देखो, एक के ऊपर एक खड़े हुये ये ऐसे प्रतीत होते हैं मानो प्रकृति ने सूर्य तक
पहुँचने के लिये इन कृष्ण-श्वेत सीढ़ियों का निर्माण किया है। शीतल, मंद, सुगन्धित समीर हृदय को किस प्रकार प्रफुल्लित
करने का प्रयत्न कर रही हैं, किन्तु विरहीजनों के लिये यह
अत्यधिक दुःखदायी भी है। उधर पर्वत पर से जो जलधारा बह रही है, उसे देख कर मुझे ऐसा आभास होता है कि सीता भी मेरे वियोग में इसी प्रकार
अश्रुधारा बहा रही होगी। इन पर्वतों को देखो, इन्हें देखकर
लगता है जैसे ब्रह्मचारी बैठे हों। ये काले-काले बादल इनकी मृगछालाएँ हों। नद-नाले
इनके यज्ञोपववीत हों और बादलों की गम्भीर गर्जना वेदमंत्रों का पाठ हो। कभी कभी
ऐसा प्रतीत होता है कि ये बादल गरज नहीं रहे हैं अपितु बिजली के कोड़ों से प्रताड़ित
हो कर पीड़ा से कराहते हुये आर्तनाद कर रहे हैं। काले बादलों में चमकती हुई बिजली
ऐसी प्रतीत हो रही है मानो राक्षसराज रावण की गोद में मूर्छित पड़ी जानकी हो। हे
लक्ष्मण! जब भी मैं वर्षा के दृश्यों को देख कर अपने मन को बहलाने की चेष्टा करता
हूँ तभी मुझे सीता का स्मरण हो आता है। यह देखो, काले मेघों
ने दसों दिशाओं को अपनी काली चादर से इस प्रकार आवृत कर लिया है जैसे मेरे हृदय की
समस्त भावनाओं को जानकी के वियोग ने आच्छादित कर लिया है।
"इस वर्षा ऋतु में राजा लोग अपने शत्रु पर आक्रमण नहीं
करते, गृहस्थ लोग घर से परदेस नहीं
जाते। घर उनके लिये अत्यन्त प्रिय हो जाता है। राजहंस भीमानसरोवर की ओर चल पड़ते
हैं। चकवे अपनी प्रिय चकवियों के साथ मिलने को आतुर हो जाते हैं और उनसे मिल कर
अपूर्व प्राप्त करते हैं। किन्तु मैं एक ऐसा अभागा हूँ जिसकी चकवी रूपी सीता अपने
चकवे से दूर है। मोर अपनी प्रियाओं के साथ नृत्य कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है
कि बगुलों की पंक्तियों से शोभायमान, जल से भरे, श्यामवर्ण मेघ मानो किसी लम्बी यात्रा पर जा रहे हैं। वे पर्वतों के
शिखरों पर विश्राम करते हुये चल रहे हैं। पृथ्वी पर नई-नई घास उग आई है और उस पर
बिखरी हुई लाल-लाल बीरबहूटियाँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो कोई नवयौवना कामिनी हरे
परिधान पर लाल बूटे वाली बेल लगाये लेटी हो। सारी पृथ्वी इस वर्षा के कारण
हरीतिमामय हो रही हैं। सरिताएँ कलकल नाद करती हुईं बह रही हैं। वानर वृक्षों पर
अठखेलियाँ कर रहे हैं। इस सुखद वातावरण में केवल विरहीजन अपनी प्रियाओं के वियोग
में तड़प रहे हैं। उन्हें इस वर्षा की सुखद फुहार में भी शान्ति नहीं मिलती। देखो,
ये पक्षी कैसे प्रसन्न होकर वर्षा की मंद-मंद फुहारों में स्नान कर
रहे हैं। उधर वह पक्षी पत्तों में अटकी हुई वर्षा की बूँद को चाट रहा है। सूखी
मिट्टी में सोये हुये मेंढक मेघों की गर्जना से जाग कर ऊपर आ गये हैं और टर्र-टर्र
की गर्जना करते हुये बादलों की गर्जना से स्पर्द्धा करने लगे हैं। जल की वेगवती
धाराओं से निर्मल पर्वत-शिखरों से पृथ्वी की ओर दौड़ती हुई सरिताओं की पंक्तियाँ इस
प्रकार बिखर कर बह रही हैं जैसे किसी के धवल कण्ठ से मोतियों की माला टूट कर बिखर
रही हो। लो, अब पक्षी घोंसलों में छिपने लगे हैं, कमल सकुचाने लगे हैं और मालती खिलने लगी है, इससे
प्रतीत होता है कि अब शीघ्र ही पृथ्वी पर सन्ध्या की लालिमा बिखर जायेगी।"
फिर राम निःश्वास छोड़ कर बोले, "वालि के मरने से सुग्रीव
ने अपना राज्य पा लिया। अब वह अपनी बिछुड़ी हई पत्नी को पुनः पाकर इस वर्षा का
आनन्द उठा रहा होगा। पता नहीं, मैं अपनी बिछुड़ी हुई सीता के
कब दर्शन करूँगा। अब तो श्रावण मास का अन्त हो चला है। शीघ्र ही शरद ऋतु का
प्रारम्भ होगा। दुर्गम मार्ग फिर आवागमन के लिये खुल जायेंगे। मुझे विश्वास है,
शरद ऋतु आते ही सुग्रीव अपने गुप्तचरों से अवश्य सीता की खोज
करायेगा।"
इतना कह कर राम गम्भीर कल्पना सागर में गोते लगाने लगे।
हनुमान-सुग्रीव
संवाद -
पवनकुमार हनुमान शास्त्र-विद्, नीतिज्ञ और सूझबूझ वाले मनीषी
थे। कब क्या करना चाहिये और क्या नहीं जैसी बातों का उन्हें यथार्थ ज्ञान था।
बातचीत करने की कला में वे निपुण थे। उन्होंने देखा, आकाश
निर्मल हो गया है, अब न तो बादल ही दिखाई पड़ते हैं और न ही
बिजली चमकती है; वर्षा ऋतु समाप्त हो गई है। वे सुग्रीव के
विषय में विचार करने लगे। उन्हें स्पष्ट प्रतीत हुआ कि मनोरथ सिद्ध हो जाने के
पश्चात् सुग्रीव अपने कर्तव्य की अवहेलना कर के विलासिता में मग्न रहने लगे हैं।
उनकी पत्नी रुमा के साथ ही साथ अब तारा भी उनके विलास लीला का एक महत्वपूर्ण अंग
बन गई है। राजकाज का भार केवल मन्त्रियों के भरोसे छोड़ कर वे स्वयं स्वेच्छाचारी
होते जा रहे हैं। श्री रामचन्द्र जी को दिये गये अपने वचन का उन्हें स्मरण भी नहीं
रह गया है।
इस प्रकार से सभी तरह से विचार करके हनुमान सुग्रीव के पास
जा कर बोले, "हे राजन्! आपको राज्य और यश दोनों की ही प्राप्ति हो चुकी है। आपने कुल
परम्परा से प्राप्त लक्ष्मी का भी विस्तार कर लिया है। अब आपको मित्रों को अपनाने
के को भी पूरा कर डालना चाहिये। आपने मित्र के कार्य को सफल बनाने के लिये जो
प्रतिज्ञा की है, उसे पूरा करना चाहिये। आप तो जानते ही हैं
कि श्री राम हमारे परम मित्र और हितैषी हैं। उनके कार्य का समय बीता जा रहा है।
इसलिये हमें जनकनन्दिनी सीता की खोज आरम्भ कर देनी चाहिये।"
सुग्रीव सत्वगुण से सम्पन्न थे। हनुमान के द्वारा स्मरण
दिलाये जाने पर तत्काल उन्होंने श्री राम के कार्य को सिद्ध करने का निश्चय किया।
उन्होंने नील नामक कुशल वानर को बुला कर आज्ञा दी, "हे नील! तुम ऐसा प्रयत्न करो जिससे
मेरी सम्पूर्ण सेना शीघ्र यहाँ एकत्रित हो जाय। सभी यूथपतियों को सेना एवं
सेनापतियों के साथ यहाँ अविलम्ब एकत्रित होने का आदेश दो। राज्य सीमा की रक्षा
करने वाले सब उद्यमी एवं शीघ्रगामी वानरों को यहाँ तत्काल उपस्थित होने के लिये
आज्ञा प्रसारित करो। सभी को सूचित कर दो कि जो भी वानर पन्द्रह दिन के अन्दर यहाँ
बिना किसी अपरिहार्य कारण के उपस्थित नहीं होगा, उसे
प्राण-दण्ड दिया जायेगा।"
ऐसा प्रबन्ध कर सुग्रीव अपने महलों में चले गये।
शरद ऋतु का आरम्भ हो गया किन्तु राम को सुग्रीव द्वारा सीता
के लिये खोज करने की के विषय में कोई सूचना नहीं मिली। वे सोचने लगे कि सुग्रीव
अपना उद्देश्य सिद्ध हो जाने पर मुझे बिल्कुल भूल गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि
अब सीता को पाने की कोई आशा शेष नहीं रह गई है। न जाने सीता पर कैसी बीत रही होगी।
राजहंसों के शब्दों को सुन कर निद्रात्याग करने वाली सीता न जाने अब कैसे रह रही
होगी। यह शरद ऋतु उसे और भी अधिक व्याकुल कर रही होगी। यह सोचते हुये राम सीता को
स्मरण कर के विलाप करने लगे।
उस समय लक्ष्मण फल एकत्रित करने के लिये गये हुए थे। जब
लक्ष्मण फल ले कर समीपवर्ती वाटिका से लौटे तो उन्होंने अपने बड़े भाई की अवस्था पर
दृष्टिपात किया। लक्ष्मण को देखते ही उन्होंने निश्वास ले कर कहा, "हे लक्ष्मण! पृथ्वी को
जलप्लावित कर देने वाले गरजते बादल अब शान्त हो कर पलायन कर गये हैं। आकाश निर्मल
हो गया है। चन्द्रमा, नक्षत्र और सूर्य की प्रभा पर शरद ऋतु
का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। हंस मानसरोवर का परित्याग कर पुनः लौट
आये हैं और चक्रवातों के समान सरिता के रेतीले तटों पर क्रीड़ा कर रहे हैं।
वर्षाकाल में मदोन्मत्त हो कर नृत्य करने वाले मोर अब उदास हो गये हैं। सरिता की
कल-कल करती वेगमयी गति अब मन्द पड़ गई है मानो वे कह रही हैं कि चार दिन के यौवन पर
मदोन्मत्त हो कर गर्व करना उचित नहीं है। सूर्य की किरणों ने मार्ग की कीचड़ को
सुखा डाला है, इससे वे आवागमन और यातायात के लिये खुल गये
हैं। राजाओं की यात्रा के दिन आ गये हैं, परन्तु सुग्रीव ने
न तो अब तक मेरी सुधि ली है और न जानकी की खोज कराने की कोई व्यवस्था ही की है।
वर्षाकाल के ये चार मास सीता के वियोग में मेरे लिये सौ वर्ष से भी अधिक लम्बे हो
गये हैं। परन्तु सुग्रीव को मुझ पर अभी तक दया नहीं आई। पता नहीं मेरे भाग्य में
क्या लिखा है। राज्य छिन गया, देश निकाला हो गया, पिता की मृत्यु हो गई, पत्नी का अपहरण हो गया और
अन्त में इस वानर के द्वारा भी ठगा गया। हे वीर! तुम्हें याद होगा कि सुग्रीव ने
प्रतिज्ञा की थी कि वर्षा ऋतु समाप्त होते ही सीता की खोज कराउँगा, परन्तु अपना स्वर्थ सिद्ध हो जाने के बाद वह इस प्रतिज्ञा को इस प्रकार
भूल गया है। इसलिये तुम किष्किन्धा जा कर उस स्वार्थी वानर से कहो कि जो प्रतिज्ञा
कर के उसका पालन नहीं करता, वह नीच और पतित होता है। क्या वह
भी वालि के जैसे ही यमलोक को जाना चाहता है? तुम उसे मेरी ओर
से सचेत कर दो ताकि मुझे कोई कठोर पग उठाने के लिये विवश न होना पड़े।"
लक्ष्मण-सुग्रीव
संवाद -
श्री रामचन्द्र जी की आज्ञा पाकर, सदैव बड़े भाई के हित में लगे
रहने वाले, लक्ष्मण क्रुद्ध होकर किष्किन्धा की ओर चले।
मार्ग के वृक्षों को बलपूर्वक गिराते हुए, पर्वतशिखरों को
उठा कर फेंकते हुए, नगर की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं से सुशोभित
बाजारों और चौराहों को पार कर, वे सुग्रीव के राजप्रासाद में
जा पहुँचे। लक्ष्मण को अत्यन्त क्रोधित देख कर सुग्रीव के सुभट भयभीत हो कर
इधर-उधर भागने लगे। लक्ष्मण सीधे सुग्रीव के रनिवास में पहुँचे। वहाँ से मृदंग की
ताल के साथ कोकिलकण्ठी कामिनियों के गायनों के स्वर निकल रहा था। महाबली लक्ष्मण
ने सुग्रीव के उस अन्तःपुर में अनेक रूपरंग की बहुत सी रूप-यौवन के गर्व से भरी
हुई सुन्दरी स्त्रियों को देखा। नूपुरों की झंकार और करधनी की खनखनाहट करती हुई
परस्त्रियों को देख कर शीलवान लक्ष्मण अत्यन्त लज्जित हो गये। श्री रामचन्द्र जी
का कार्य सिद्ध होते न देख कर कुपित लक्ष्मण ने धनुष की टंकार की जिससे समस्त
दिशाएँ गूँज उठीं।
उस समय सुग्रीव के कक्ष में इन्द्र की अप्सराओं को भी लजाने
वाली नृत्यांगनाएँ नूपुरों और मेखलाओं की झंकार के साथ नृत्य कर रही थीं और
सुग्रीव मद्यपान से अचेत अर्द्धनिमीलित नेत्रों से यह सब देख रहा था। धनुष के टंकार
की ध्वनि को सुनते ही नृत्य करने वाली रमणियाँ भयभीत हो कर एक ओर खड़ी हो गईं। भय
से सु्ग्रीव का मुख पीला पड़ गया। उसने सहम कर तारा से पूछा, "हे प्रिये! रामचन्द्र जी
का यह छोटा भाई अकारण ही इतना क्रुद्ध हो कर क्यों आया है? तुम
अपनी मृदु वाणी से उसे शान्त करो! जैसे भी हो वाणी कौशल से उसके क्रोध को शान्त कर
के यहाँ आने का कारण ज्ञात करो।"
पति की आज्ञा का पालन करती हुई मुस्कुराती तारा लक्ष्मण के
पास पहुँची। अपने सम्मुख सुन्दर युवती को पा कर ब्रह्मचारी लक्ष्मण ने अपने क्रोध
को नियन्त्रित किया और अपनी दृष्टि झुका ली। लक्ष्मण को दृष्टि झुकाये देख तारा का
भय कुछ कम हुआ।
तारा मृदु वाणी में बोली, "हे रघुकुलश्रेष्ठ! आपके इस क्रोध का
क्या कारण है? क्या हम से कोई अपराध हुआ है? यदि आपके दास सुग्रीव से कोई अपराध हुआ भी है तो भी आप जैसे उदार एवं
क्षमाशील महापुरुष को उसे क्षमा प्रदान करनी चाहिये। वे आपके सेवक हैं, कृतघ्न नहीं हैं, और न ही वे कपटी एवं मिथ्यावादी
हैं। आपके उपकार को वे सदा स्मरण करते रहते हैं और आप दोनों भाइयों का ही गुणगान
करते रहते हैं। श्री रामचन्द्र की कृपा से ही उन्होंने अपने राज्य को, रुमा को और मुझे प्राप्त किया है। भारी दुःख के बाद सुख मिलने के कारण
उनसे कुछ भूल हो गई है और वे आपके दर्शन न कर सके। आप तो जानते ही हैं कि
विश्वामित्र जैसे महामुनि भी घृताची नामक अप्सरा पर मुग्ध हो कर दस वर्ष तक उसके
साथ रमण करते रहे थे, फिर सुग्रीव तो एक साधारण व्यक्ति है।
हे राघव! मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती हूँ कि आप उन्हें क्षमा कर दें। मैं आपको
विश्वास दिलाती हूँ कि वे श्री रामचन्द्र जी के कार्य के लिये राज्य का सुख,
मुझे, रुमा को और अंगद को भी छोड़ देंगे और जब
तक जनक दुलारी सीता जी को श्री रामचन्द्र जी से नहीं मिला देंगे तब तक शान्ति से
नहीं बैठेंगे। वानरों के सरदारों को बुलाने के लिये दूत भेजे जा चुके हैं। आज ही
वे सब लोग आने वाले हैं। उन सब को ले कर वे आज ही सीतापति के पास जायेंगे। आप
क्रोध त्याग कर मेरी बात पर विश्वास करें। मैं कभी मिथ्या भाषण नहीं करती।"
तारा के वाक्यों से शान्त हो कर लक्ष्मण सुग्रीव के पास
पहुँचे। लक्ष्मण के पहुँचते ही सुग्रीव अपने आसन से उठ कर खड़ा हो गया। उसके एक ओर
रुमा और दूसरी ओर तारा थी। लक्ष्मण ने क्रुद्ध हो कर कहा, "हे वानरराज! संसार
जितेन्द्रिय, दयालु और कृतज्ञ राजा का ही सम्मान करता है। जो
किसी मनुष्य को सहायता देने का वचन दे कर भी उसकी सहायता नहीं करता उसे आत्महत्या
जैसा महापाप लगता है। शास्त्रों में गौघाती, चोर और अपना
व्रत भंग करने वाले के लिये तो प्रायश्चित का प्रावधान है, परन्तु
कृतघ्नता के पाप का कोई प्रयश्चित नहीं बताया गया है। उसे तो अनन्त काल तक नरक की
यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। रामचन्द्र जी ने तुम्हारे साथ जो उपकार किया है, उसे भुला देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। इसलिये सुग्रीव! अब तुम्हें उस
वचन का पालन करना चाहिये जो तुमने उन्हें दिया है।"
लक्ष्मण की बात सुन कर सुग्रीव अत्यन्त नम्रता के साथ बोला, "हे रघुकुलतिलक! श्री
रामचन्द्र जी की दया से ही मैंने अपना खोया हुआ राज्य फिर से पाया है, इसलिये उनके इस महान उपकार को मैं जीवन भर नहीं भूल सकता। मैं जानता हूँ,
वे अपने अपूर्व पराक्रम से सीता को चुराने वाले राक्षस को एक क्षण
में नष्ट कर सकते हैं, केवल मेरा मान बढ़ाने के लिये वे मुझसे
सहायता माँग रहे हैं। इसके लिये मैं उनका अत्यन्त अनुग्रहीत हूँ। उनके साथ मेरी
सेना और मैं भी युद्ध करने के लिये चलेंगे। अब तक हुए विलम्ब के लिये आप मुझे
क्षमा करें।"
लक्ष्मण इन वचनों से सन्तुष्ट हो कर बोले, "अब तुम मेरे साथ चल कर
भैया के दुःखी मन को सन्तोष दो। वे सीता जी के वियोग में बहुत दुःखी हो रहे
हैं।"
वानरों
को सीता की खोज का आदेश -
लक्ष्मण से प्रेरणा पाकर सुग्रीव ने अपने यूथपतियों के साथ
रामचन्द्र जी से मिलने के लिये प्रस्थान किया। एक पालकी मँगा कर उसमें पहले
लक्ष्मण को आरूढ़ किया और फिर स्वयं भी उसमें जा बैठा। शंखों और भेरियों की ध्वनि
करते हुए सहस्त्रों वीरों के साथ सुग्रीव वहाँ पहुँचा जहाँ श्री राम निवास कर रहे
थे। लक्ष्मण को आगे कर और हाथ जोड़ कर विनीत भाव से सुग्रीव श्री राम के सम्मुख खड़ा
हो गया। रामचन्द्र जी ने प्रसन्न हो कर सुग्रीव को गले लगाया और फिर उसकी प्रशंसा
करते हुये कहा, "हे वानरेश! समय पर अपने सम्पूर्ण शुभ कार्यों को करने वाला राजा ही वास्तव
में शासन करने के योग्य होता है और जो भोग विलास में लिप्त हो कर इन्द्रयों के
वशीभूत हो जाता है, वह अन्त में विनाश को प्राप्त होता है।
अब तुम्हारे उद्योग करने का समय आ गया है। अतएव तुम अपने मति अनुसार जैसा उचित
समझो, वैसा करो ताकि सीता का पता मुझे शीघ्र प्राप्त हो
सके।"
श्री राम के नीतियुक्त वचन सुन कर सुग्रीव ने कहा, "हे प्रभो! मैं तो आपका
अकिंचन दास हूँ। मैं आपके उपकार को कभी नहीं भूल सकता। जनकनन्दिनी की शीघ्र खोज
करवाने के उद्देश्य से मैं इन सहस्त्र वानर यूशपतियों को ले कर यहाँ उपस्थित हुआ
हूँ। इन सबके पास अपनी-अपनी सेनाएँ हैं और ये स्वयं भी इन्द्र के समान पराक्रमी
हैं। आपकी आज्ञा पाते ही ये लंकापति रावण को मार कर सीता को ले आयेंगे। इन्हें आप
इस कार्य के लिये आज्ञा प्रदान करें।"
सुग्रीव की उत्साहवर्द्धक बात सुन कर राम बोले, "राजन्! सबसे पहले तो इस
बात का पता लगाना चाहिये कि सीता जीवित भी है या नहीं। यदि जीवित है, तो उसे कहाँ रखा गया है? रावण का निवास स्थान कहाँ
है? उसके पास कितनी और कैसी सेना है? वह
स्वयं कितना पराक्रमी है? इन समस्त बातों के ज्ञात हो जाने
पर ही आगे की योजना पर विचार किया जायेगा। यह कार्य ऐसा है जिसे न मैं कर सकता हूँ
और न ही लक्ष्मण। केवल तुम ही अपनी सेना के द्वारा करवा सकते हो।"
राम के वचन सुनकर सुग्रीव ने अपने यूथपतियों को बुला कर
आज्ञा दी, "हे वीर महारथियों! अब
मेरी लाज और श्री रामचन्द्र जी का जीवन तुम लोगों के हाथ में है। तुम दसों दिशाओं
में जा कर जानकी जी की खोज करो। उन सभी पर्वतों की दुर्गम कन्दराओं, वनों, नदी तटों, समुद्री
द्वीपों, उपत्यकाओं और उन गुप्त स्थानों को छान मारो जहाँ
उनके होने की तनिक भी सम्भावना हों। आकाश, पाताल, भूमण्डल का कोई भी स्थान छिपा नहीं रहना चाहिये। एक मास के अन्दर जानकी जी
का पता मिल जाना चाहिये। यदि इस अवधि में उनका पता न लगा सके तो तुम स्वयं का वध
हुआ समझो।"
हनुमान
को मुद्रिका देना -
वानर यूथपतियों को इस प्रकार की कठोर आज्ञा दे कर सुग्रीव
हनुमान से बोला, "हे कपिश्रेष्ठ! पृथ्वी, अन्तरिक्ष, आकाश, पाताल, देवलोक, वन, पर्वत, सागर कोई ऐसा स्थान
नहीं है जहाँ तुम्हारी गति न हो। असुर, गन्धर्व, नाग, मनुष्य, देवता, समुद्र तथा पर्वतों सहित सम्पूर्ण लोकों को तुम जानते हो और तुम अतुल,
अद्वितीय, पराक्रमी तथा साहसी हो। तुम्हारी
सूझबूझ और कार्यकुशलता भी अपूर्व है। यद्यपि मैंने सीता जी की खोज के लिये सब
वानरों को आदेश दिया है परन्तु मुझे सच्चा भरोसा तुम्हारे ऊपर ही है और तुम्हें ही
उनका पता लगा कर लाना है।"
सुग्रीव का हनुमान पर इतना भरोसा देख कर राम बोले, "हे हनुमान! सुग्रीव की
भाँति मुझे भी तुम पर विश्वास है कि तुम सीता का पता अवश्य लगा लोगे। इसलिये मैं
तुम्हें अपने नाम से सुशोभित अपनी यह मुद्रिका देता हूँ। जब कभी जानकी मिले,
उसे तुम यह मुद्रिका दे देना। इसे पा कर वह तुम्हारे ऊपर सन्देह
नहीं करेगी। तुम्हें मेरा दूत समझ कर सारी बातें बता देगी।"
राम की मुद्रिका ले कर हनुमान ने उसे अपने मस्तक से लगाया
और सुग्रीव तथा श्री राम के चरणों को स्पर्श कर के वानरों की सेना के साथ सीता को
खोजने के लिये निकल पड़े। शेष वानर भी सुग्रीव के निर्देशानुसार भिन्न-भिन्न दिशाओं
के लिये चल पड़े। उन्होंने वनों, पर्वतों, गिरिकन्दराओं, घाटियों, ऋषि-मुनियों के आश्रमों, विभिन्न राजाओं की राजधानियों, शैल-शिखरों, सागर द्वीपों, राक्षसों, यक्षों,
किन्नरों के आवासों आदि को छान मारा परन्तु कहीं भी उन्हें
जनकनन्दिनी सीता का पता नहीं मिला। अन्त में भूख-प्यास से व्यथित हो थक कर
उत्साहहीन हो निराशा के साथ एक स्थान पर बैठ कर अपने कार्यक्रम के विषय में विचार
विमर्श करने लगे। एक यूथपति ने उन्हें सम्बोधित करते हुये कहा, "हमने उत्तर पूर्व और पश्चिम दिशा का कोई स्थान नहीं छोड़ा। अत्यन्त अगम्य
प्रतीत होने वाले स्थानों को भी हमने छान मारा किन्तु कहीं भी महारानी सीता का पता
नहीं चला। मेरे विचार से अब हमें दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान करना चाहिये। इसलिये
अब अधिक समय नष्ट न कर के हमें तत्काल चल देना चाहिये।"
यूथपति का प्रस्ताव स्वीकार कर सबसे पहले यह दल विन्ध्याचल
पर पहुँचा। वहाँ की गुफाओं,
जंगलों, पर्वत-शिखरों आदि सभी स्थानों को
उन्होंने छान मारा किन्तु जनकनन्दिनी सीता के उन्हें दर्शन नहीं मिले। विन्ध्यपर्वत
के आसपास का महान देश अनेक गुफाओं तथा घने जंगलों से भरा था इसलिये वहाँ जानकी जी
को ढूँढने में उन्हें अत्यन्त कठिनाई का सामन करना पड़ा।
इस प्रकार से जानकी जी की खोज के लिये सुग्रीव के द्वारा
दिया गया समय व्यतीत हो गया। समस्त वानर पूर्णतः निराश हो गये और सुग्रीव के
द्वारा दिये जाने वाले दण्ड के विषय में सोचकर अत्यन्त भयभीत भी हो गये। उनकी
निराशा और भय को देख कर महाबुद्धिमान अंगद ने कहा, "निराश और भयभीत होने की आवश्यकता
नहीं है। यदि हम सभी वानर अभी भी प्रयत्न करके जानकी जी को खोज लेंगे तो महाराज
सुग्रीव प्रसन्न ही होंगे। कर्म का फल अवश्य ही मिलता है अतः खिन्न होकर उद्योग को
छोड़ देना कदापि उचित नहीं है।
राजकुमार अंगद की बातों से उत्साहित होकर वानरों ने जानकी
जी की खोज के लिये पुनः उद्योग करना आरम्भ कर दिया। वहाँ के अत्यन्त भयंकर तथा
सुनसान जंगलों में न तो पानी मिलता था और न ही किसी प्रकार के कंद-मूल-फल ही मिलते
थे। मनुष्य का तो नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता था। वहाँ अन्वेषण कार्य बहुत ही
कठिन था और वानरों को वहाँ अत्यन्त कष्ट सहन करना पड़ा।
समस्त वानर भूख प्यास से व्याकुल होकर वहाँ घूम रहे थे तो
उन्हें एक गुफा दिखाई पड़ी। वह गुफा यद्यपि अन्धकारमय थी किन्तु उसमें से हंस, क्रौंञ्च, सारस और जल से भीगे हुए चकवे निकलते हुए दृष्टिगत हुए। उन जल से भीगे हुए
पक्षियों को देख कर हनुमान जी ने अनुमान लगाया कि अवश्य ही उस गुफा के भीतर जल का
स्रोत है। हनुमान जी की सलाह के अनुसार समस्त वानर उस गुफा में प्रवेश कर गये।
तपस्विनी
स्वयंप्रभा -
वह गुफा अत्यन्त ही अन्धकारमय थी किन्तु वानरों की दृष्टि
उस अन्धकार में भी कार्य कर रही थी। उनका तेज और पराक्रम अवरुद्ध नहीं होता था और
उनकी गति वायु के समान थी। तीव्र वेग के साथ वे उस गुफा के भीतर पहुँच गये। भीतर
पहुँच कर उन्होंने देखा कि वह स्थान अत्यन्त उत्तम, प्रकाशमान और मनोहर था। चारों ओर साल,
ताल, तमाल, नागकेसर,
अशोक, धव, चम्पा,
कनेर आदि के पुष्पयुक्त वृक्ष दृष्टिगत हो रहे थे। वे सभी वृक्ष
सुवर्नमय थे, उनसे अग्नि के समान प्रभा निकल रही थी और उनके
फल फूल भी सुनहरे रंग के थे। इन वृक्षों में लगे मूँगे और मणियों के समान चमकीले
फूलों और फलों पर सुनहरे रंग के भौंरे मंडरा रहे थे। सूर्य जैसी आभा वाली काञ्चन
वृक्षों से घिरे अनेक विशाल सरोवर भी दिखाई पड़े जिनमें स्वर्णकमल और सुनहरे मत्स्य
शोभा पा रहे थे।
उन्होंने वहाँ पर सोने और चांदी से बने हुए बहुत सारे भवन
भी देखे जिनकी खिड़कियाँ मोतियों की जालियों से ढँकी हुई थीं। स्वर्ण तथा रजत से
निर्मित विमान भी दृष्टिगत हो रहे थे। वहाँ रखे हुये अनेक पात्रों में सोने, चांदी और कांसे के ढेर भरे हुए
थे। बहुमूल्य सवारियाँ, सरस मधु, महामूल्यवान
दिव्य वस्त्रों के ढेर, विचित्र कम्बल एवं कालीनें, मृगचर्मों के समूह आदि भी जहाँ तहाँ रखे हुए थे।
कुछ दूर जाने पर उन्हें वक्कल और काले रंग का मृगचर्म धारण
किये हुये एक स्त्री दिखी जिसका मुख तपस्या के तेज से दमक रहा था।
परम बुद्धिमान हनुमान जी ने उस तपस्विनी के पास जाकर हाथ
जोड़ कर कहा, "देवि! आप कौन हैं? यह गुफा, ये
भवन तथा ये रत्नादि किसके हैं? हे देवि! हम लोग भूख-प्यास और
थकावट से व्याकुल होकर जल मिलने की आशा से इस गुफा में चले आये हैं किन्तु यहाँ के
अद्भुत पदार्थों को देख कर हमारी विवेकशक्ति लुप्तप्राय हो गई है। यह सब आपकी
तपस्या के प्रभाव से हुआ है या यह कोई आसुरी माया है?"
तपस्विनी ने यह कह कर कि तुम सब पहले भोजन ग्रहण कर लो, उन सभी को शुद्ध भोजन, फल-मूल आदि दिया।
फिर भोजन से तृप्त हुए वानरों से तपस्विनी ने कहा, "वानरश्रेष्ठ! इस दिव्य
सुवर्णमय उत्तम भवन को दानवशिरोमणियों के विश्वकर्मा मयासुर ने बनाया है। इस भवन
में निवास करते हुए मयासुर का सम्पर्क हेमा नाम की अप्सरा से हो गया जिससे क्रुद्ध
होकर देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से मयासुर का वध कर डाला। अब यह स्थान हेमा के ही
आधीन है। मैं मेरसावर्णि की कन्या हूँ और मेरा नाम स्वयंप्रभा है। हेमा मेरी प्रिय
सखी है। उसी के द्वारा नियुक्त होकर मैं इस स्थान का संरक्षण करती हूँ। अब तुम लोग
बताओ कि तुम लोग किस प्रयोजन से घूम रहे हो?"
पवनकुमार हनुमान जी बोले, "देवि! पिता की आज्ञा से दशरथनन्दन
श्री राम अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्य में निवास कर रहे थे।
जनस्थान में आकर रावण ने उनकी स्त्री का बलपूर्वक अपहरण कर लिया। श्री राम वानरराज
सुग्रीव के मित्र हैं। हम लोग अपने राजा सुग्रीव की आज्ञा से जानकी जी की खोज कर
रहे हैं। हमें इस गुफा से बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं दिख रहा है अतः आप हमें
यहाँ से बाहर निकालने की कृपा करें ताकि हम अपने कर्तव्य को पूर्ण कर सकें।"
तपस्विनी स्वयंप्रभा ने कहा, "श्रेष्ठ वानरों! यद्यपि इस स्थान में
आ जाने वाला जीवन भर यहाँ से बाहर नहीं निकल सकता किन्तु मैं अपने तप के प्रभाव से
तुम सब को यहाँ से बाहर निकाल दूँगी। तुम सभी अपनी आँखें बंद कर लो।"
वानरों के आँख मूँदते ही स्वयंप्रभा ने निमिषमात्र में
उन्हें गुफा से बाहर निकाल कर कहा, "अब तुम अपनी आँखें खोल लो। यह देखो
तुम्हारे समक्ष महासागर लहरा रहा है। तुम्हारा कल्याण हो।"
इतना कह कर तपस्विनी स्वयंप्रभा अपने स्थान में वापस चली
गईं।
जाम्बवन्त
द्वारा हनुमान को प्रेरणा -
वानरों के समक्ष भयंकर महासागर विशाल लहरों से व्याप्त होकर
निरन्तर गर्जना कर रहा था। समुद्र तट पर बैठ कर वे विचार विमर्श करने लगे।
युवराज अंगद निराश हो कर बोले, "सीता जी को खोज पाने में
हम लोग सर्वथा निष्फल रहे हैं। अब हम लौट कर राजा सुग्रीव और रामचनद्र जी को कैसे
मुख दिखायेंगे। निष्फल हो कर लौटने से तो अच्छा है कि हम यहाँ अपने प्राण त्याग
दें।"
इस पर बुद्धिमान हनुमान जी ने कहा, "तारानन्दन! तुम युद्ध
में अपने पिता के समान ही अत्यन्त शक्तिशाली हो। अत्यन्त बुद्धिमान होते हुए भी
तुम इस तरह से निराशा की बातें कर रहे हो यह तुम्हें शोभा नहीं देता।"
इस प्रकार से उनका विचार विमर्ष चल ही रहा था कि वहाँ पर
गृध्रराज सम्पाति आ पहुँचा। वानरों को देख कर वह बोला, "आज दीर्घकाल के पश्चात्
मुझे मेरे कर्मों के फल के रूप में यह भोजन प्राप्त हुआ है। मैं एक एक कर के
वानरों का भक्षण करता जाउँगा।"
सम्पाति के वचन सुनकर दुःखी हुए अंगद ने हनुमान जी से कहा, "एक तो हम लोग जानकी जी को
खोज नहीं पाये, उस पर यह दूसरी विपत्ति आ गई। हमसे तो अच्छा
गृधराज जटायु ही था जिसने श्री रामचन्द्र जी के कार्य को करते हुये अपने प्राण
न्यौछावर कर दिया था।"
अंगद के मुख से जटायु का नाम सुनकर सम्पाति ने आश्चर्य से
कहा, "जटायु तो मेरा छोटा भाई
है। तुम उसके विषय में मुझे पूरा पूरा हाल कहो।"
अंगद से जटायु के विषय में पूरा हाल सुनकर सम्पाति बोला, "बन्धुओं! तुम सीता जी की
खोज करने जा रहे हो। मैं इस विषय में जो भी जानता हूँ वह तुम्हें बताता हूँ
क्योंकि रावण से मैं अपने छोटे भाई जटायु का प्रतिशोध लेना चाहता हूँ। परन्तु मैं
वृद्ध और दुर्बल होने के कारण रावण का वध नहीं कर सकता। इसलिये मैं तुम्हें उसका
पता बताता हूँ। सीता जी का हरण करने वाला रावण लंका का राजा है और उसने सीता जी को
लंकापुरी में ही रखा है जो यहाँ से सौ योजन (चार सौ कोस) की दूरी पर है और इस
समुद्र के उस पार है। लंकापुरी में बड़े भयंकर, सुभट, पराक्रमी राक्षस रहते हैं। लंकापुरी एक पर्वत के ऊपर स्वर्ण निर्मित नगरी
है जिसका निर्माण स्वयं विश्वकर्मा ने किया है। उसमें बड़ी सुन्दर ऊँची-ऊँची मनोरम
स्वर्ण निर्मित अट्टालिकाएँ हैं। वहीं पर स्वर्णकोट से घिरी अशोकवाटिका है जिसमें
रावण ने सीता को राक्षसनियों के पहरे में छिपा कर रखा है। इस समुद्र को पार करने
का उपाय करो तभी तुम सीता तक पहुँच सकोगे।"
यह कह कर वह गृद्ध मौन हो गया।
विशाल सागर की अपार विस्तार देख कर सभी वानर चिन्तित होकर
एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। अंगद, नल, नील आदि किसी भी
सेनापति को समुद्र पार कर के जाने का साहस नहीं हुआ।
उन सबको निराश और दुःखी देख कर वृद्ध जाम्बन्त ने कहा, "हे पवनसुत! तुम इस समय
चुपचाप क्यों बैठे हो? तुम तो वानरराज सुग्रीव के समान
पराक्रमी हो। तेज और बल में तो राम और लक्ष्मण की भी बराबरी कर सकते हो। तुम्हारा
वेग और विक्रम पक्षिराज गरुड़ से किसी भी भाँति कम नहीं है जो समुद्र में से
बड़े-बड़े सर्पों को निकाल लाता है। इतना अतुल बल और साहस रखते हुये भी तुम समुद्र
लाँघ कर जानकी जी तक पहुँचने के लिये तैयार क्यों नहीं होते? तुम्हें तो समुद्र या लंका में मृत्यु का भी भय नहीं है क्योंकि तुम्हें
देवराज इन्द्र से इच्छामृत्यु का वर प्राप्त है। जब तुम चाहोगे, तभी तुम्हारी मृत्यु होगी अन्यथा नहीं। तुम केशरी के क्षेत्रज्ञ और
वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसीलिये उन्हीं के सदृश तेजस्वी और
अबाध गति वाले हो। हम लोगों में तुम ही सबसे अधिक साहसी और शक्तिशाली हो। इसलिये
उठो और इस महासागर को लाँघ जाओ। तुम्हीं इन निराश वानरों की चिन्ता को दूर कर सकते
हो। मैं जानता हूँ, इस कार्य को केवल तुम और अंगद दो ही
व्यक्ति कर सकते हो, पर अंगद अभी बालक है। यदि वह चूक गया और
उसकी मृत्यु हो गई तो सब लोग सुग्रीव पर कलंक लगायेंगे और कहेंगे कि अपने राज्य को
निष्कंटक बनाने के लिये उसने अपने भतीजे को मरवा डाला। यदि मैं वृद्धावस्था के
कारण दुर्बल न हो गया होता तो सबसे पहले मैं समुद्र लाँघता। इसलिये हे वीर! अपनी
शक्ति को समझो और समुद्र लाँघने को तत्पर हो जाओ।"
जाम्बवन्त के प्रेरक वचनों को सुन कर हनुमान को अपनी क्षमता
और बल पर पूरा विश्वास हो गया। अपनी भुजाओं को तान कर हनुमान ने अपने सशक्त रूप का
प्रदर्शन किया और गुरुजनों से बोले, "आपके आशीर्वाद से मैं मेघ से उत्पन्न
हुई बिजली की भाँति पलक मारते निराधार आकाश में उड़ जाउँगा। मुझे विश्वास हो गया है
कि मैं लंका में जा कर अवश्य विदेहकुमारी के दर्शन करूँगा।"
यह कह कर उन्होंने घोर गर्जना की जिससे समस्त वानरों के
हृदय हर्ष से प्रफुल्लित हो गये। सबसे विदा ले कर हनुमान महेन्द्र पर्वत पर चढ़ गये
और मन ही मन समुद्र की गहराई का अनुमान लगाने लगे।
॥किष्किन्धाकाण्ड समाप्त॥
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