जो निकाय सूत्रों का या सूत्रपिटक का
सबसे अधिक प्रामाण्य स्वीकार करता है, उसे सौत्रान्तिक कहते हैं। अट्ठसालिनी में सूत्र शब्द के
अनेक अर्थ कहे गये हैं, यथा:
अत्थानं सूचनतो सुवुत्ततो सवनतो थ सूदनतो।
सुत्ताणा सुत्तसभागतो च सुत्तं सुत्तं ति अक्खातं।।
(अट्ठसालिनी, निदानकथावण्णना, पृ. 39)
सूत्र को ही ‘सूत्रान्त’ भी कहते हैं अथवा सूत्र के आधार पर प्रवर्तित सिद्धान्त ‘सूत्रान्त’ कहलाते हैं। उनसे सम्बद्ध निकाय ‘सौत्रान्तिक’ है। जिन वचनों के द्वारा भगवान् जगत् का हित सम्पादित करते
हैं,
वे वचन ‘सूत्र’ हैं। अथवा जैसे मणि, सुवर्ण आदि के दानों को एक धागे में पिरोकर सुन्दर हार
(आभूषण) का निर्माण किया जाता है, उसी तरह नाना अध्याशय एवं रुचि वाले सत्त्वों के लिए
उपदिष्ट नाना बुद्धवचनों को निर्वाण के अर्थ में जिनके द्वारा आबन्धन किया जाता है,
वे सूत्र हैं। महायानी परम्परा के अनुसार बुद्ध का कोई एक
भी वचन ऐसा नहीं है, जिसमें ज्ञेय, मार्ग और फल संगृहीत न हो। इसलिए बुद्धवचन ही ‘सूत्र’ है। अतः ‘सूत्र’ यह बुद्धवचनों का सामान्य नाम है। यशोमित्र ने अभिधर्मकोशभाष्य
की टीका में सौत्रान्तिक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है: ‘कः सौत्रान्तिकार्थः ? ये सूत्रप्रामाणिकाः, न तु शास्त्रप्रामाणिकास्ते सौत्रान्तिकाः’
(अभिधर्मकोशभाष्यटीका,
स्फुटार्था, पृ. 15) अर्थात् सौत्रान्तिक शब्द का क्या अर्थ है ?
जो सूत्र को, न कि शास्त्र को प्रमाण मानते हैं,
वे सौत्रान्तिक हैं। इन्हें ही दाष्र्टान्तिक भी कहते हैं,
क्योंकि वे दृष्टान्त के माध्यम से बुद्ध वचनों का
व्याख्यान करने में अत्यन्त निपुण होते हैं। इस निर्वचन के द्वारा त्रिपिटक के
सम्बन्ध में सौत्रान्तिकों की दृष्टि का संकेत भी किया गया है।
त्रिपिटक- इस विषय में किसी का कोई विवाद नहीं है कि महाकाश्यप आदि
महास्थविरों ने बुद्धवचनों का सकंलन करके उन्हें त्रिपिटक का स्वरूप प्रदान किया।
काल क्रम में आगे चलकर बुद्धवचनों के सम्बन्ध में परस्पर विरुद्ध विविध मत-मतान्तर
और विविध साम्प्रदायिक दृष्टियाँ प्रस्फुटिक हुई। इस विषय में सौत्रान्तिकों की
विशेष दृष्टि है। इनके मतानुसार स्थविरवादियों का अभिधर्मपिटक,
जिसमें धम्मसंगणि, विभंग आदि 7 ग्रन्थ संगृहीत हैं, वह (अभिद्दर्मपिटक) बुद्धवचन नहीं माना जा सकता। इनका कहना
है कि इन ग्रन्थों में असंस्कृत धर्मों की द्रव्यसत्ता आदि अनेक युक्तिहीन
सिद्धान्त प्रतिपादित हैं। भगवान् बुद्ध कभी भी युक्तिहीन बातें नहीं बोलते,
अतः इन्हें बुद्धवचन के रूप में स्वीकार करना असम्भव है।
वस्तुतः ये (सातों) ग्रन्थ परवर्ती हैं और आभिधात्मकों की कृति हैं। अतः ये
शास्त्र हैं। उन्होंने इनके रचयिताओं के नामों का भी उल्लेख किया है,
यथा- ज्ञानप्रस्थान के कर्ता आर्यकात्यायनीपुत्र,
प्रकरणपाद के वसुमित्र, विज्ञानकाय के देवशर्मा, धर्मस्कन्ध के शारीपुत्र, प्रज्ञप्तिशास्त्र के मौ०लयायन,
धातुकाय के पूर्ण तथा संगीतिपर्याय के महाकौष्ठिल्ल कर्ता
हैं। ये ग्रन्थ किसी प्रामाणिक पुरुष द्वारा रचित नहीं हैं और न प्रथम संगीति में
इनका संगायन ही हुआ है, अतः पृथग्जनों द्वारा विरचचित होने से हम सौत्रान्तिक
इन्हें बुद्धवचन नहीं मानते। इनका कहना है कि बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सूत्र ही हमारे
मत में प्रमाण हैं, न कि कोई अन्य शास्त्र।
सौत्रान्तिकों की युक्तियों में कुछ-कुछ सत्यांश भी प्रतीत होता है। यह
आश्चर्य की ही बात है कि भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के दो सौ वर्षों के अनन्तर
(तृतीय संगीति के अवसर पर) मौ०लीपुत्र तिष्य के द्वारा विरचित कथावत्थु नामक
ग्रन्थ स्थविरवादियों के द्वारा बुद्धवचन के रूप में मान्य है। इसी तरह स्थविर
धर्मत्रात द्वारा विरचित उदानवर्ग सर्वास्तिवादियों के द्वारा बुद्धवचन के रूप में
माना जाता है। अपने मत की पुष्टि के लिए स्थविरवादियों द्वारा यह कहा जाता है कि
भगवान् बुद्ध अनागत के ज्ञाता और त्रिकालदर्शी थे। उन्होंने यह भविष्यवाणी कर दी
थी कि मेरे बाद भविष्य में मु०लीपुत्र तिष्य उत्पन्न होगा और वह मेरे द्वारा
उपदिष्ट मातृकाओं का विस्तार करते हुए कथावत्थु नामक प्रकरण का निर्माण करेगा। अतः
बुद्ध की भविष्यवाणी के अनुसार निमित्त होने से यह प्रकरण बुद्धवचन है।
सौत्रान्तिकों का कहना है कि स्थविरवादियों की यह युक्ति मान ली जाए तो नागार्जुन
के ग्रन्थों को भी बुद्धवचन मानना होगा, क्योंकि उनके बार में भी लङ्कावतार सूत्र एवं
मंजुश्रीमूलकल्प आदि में बुद्ध की भविष्यवाणी उपलब्द्द है।
इस विषय में स्थविरवादी, सर्वास्तिवादी आदि सौत्रान्तिकों पर आक्षेप करते हैं कि यदि
धम्मसंगणि आदि और ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थ अभिधर्मपिटक के रूप में बुद्धवचन नहीं
है तथा प्रथम संगीति आदि के अवसर पर उनका संगायन भी नहीं हुआ है तो बुद्धवचनों का
त्रिपिटक में संग्रह और त्रिपिटकव्यवस्था सर्वथा निरर्थक हो जाएगी। इतना ही नहीं,
सूत्रविरोध भी होगा, क्योंकि सूत्रों में बहुत स्थानों पर ‘अभिधर्मपिटक’, ‘त्रैपिटक भिक्षु’ आदि शब्द (सूत्रवचन) उपलब्ध होते हैं। ये सूत्रवचन (शब्द) न
तो अप्रामाणिक हैं और न निरर्थक ही। इसलिए आप (सौत्रान्तिकों) का मत समीचीन नहीं
है। अपि च, आपके मत के अनुसार तो अभिधर्मपिटक का अभाव ही हो जाएगा,
क्योंकि उन ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध
नहीं है,
जिन्हें अभिधर्मपिटक कहा जा सके।
दाष्र्टान्तिक इन आक्षेपों का युक्तियुक्त समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं
कि आपका यह कहना सही है कि उन ग्रन्थों के अलावा अभिधर्म के अन्य ग्रन्थ नहीं हैं,
फिर भी अभिद्दर्म के अभाव का दोष नहीं है तथा अभिधर्म के
अभाव का दोष भी हम पर लागू नहीं हेाता, क्योंकि धर्मसंगणि, ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थों को अभिधर्मपिटक के रूप में
मानकर सूत्रों में ‘अभिधर्मपिटक’ और ‘त्रैपिटक भिक्षु’ आदि शब्दों का व्यवहार नहीं किया गया है,
और न तो भगवान् ने सूत्रपिटक और विनयपिटक से अतिरिक्त
अभिधर्मपिटक की देशना ही की है, फिर भी उन्होंने अभिद्दर्म की देशना तो की है। सूत्रों में
ही अनेक जगहों पर (अनेक सूत्रों में) उन्होंने धर्मों के स्वलक्षण और सामान्यलक्षण
आदि की विवेचना की है, सूत्रों के ऐसे स्थल या वचन ही वस्तुतः अभिधर्म हैं। जिन
सूत्रों में इस प्रकार का द्दर्मप्रविचय या धर्मों का विश्लेषण उपलब्ध होता है,
ऐसे सूत्रविशेष ही हमारे मतानुसार अभिधर्म हैं,
जैसे अर्थविनिश्चय आदि सूत्र, न कि धम्मसंगणि, ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थ। ‘मातृका’ शब्द भी अभिधर्म के पर्याय के रूप में सूत्रों में मिलता
है। अभिधर्मधर के लिए मातृकाधर शब्द का प्रयोग स्वयं भगवान् ने ही किया। प्रथम
पंचशतिका संगीति में भी अभिधर्म का संगायन महाकाश्यप आदि महास्थविरों ने मातृका के
रूप में ही किया है। इसलिए ‘अभिद्दर्मपिटक’ ‘त्रैपिटक भिक्षु’ आदि शब्दों के आधार पर कोई दोष या सूत्रविरोध का आक्षेप हम
पर नहीं दिया जा सकता। स्थविरवादी, सर्वास्तिवादी आदि द्वारा भी माना जाता है कि अभिधर्म की
देशना भगवान् ने प्रकीर्ण रूप में की है, आर्य कात्यायनीपुत्र आदि ने बाद में उनका संकलन करके
ग्रन्थरूप प्रदान किया। इसी से यह भी स्पष्ट होता है कि प्रथम संगीति के अवसर पर
अभिधर्म का अस्तित्व तो था, किन्तु अभिधर्म ग्रन्थों का जैसा स्वरूप आज उपलब्ध है,
वैसा उस समय नहीं था।
प्रथम संगीति के प्राचीन वर्णनों के प्रसंग में अभिधर्मपिटक के संगायन का
स्पष्ट उल्लेख समुपलब्ध नहीं होता। सर्वास्तिवादियों के क्षुद्रकागम में यद्यपि
अभिधर्म के संगायन का उल्लेख मिलता है, तथापि वहाँ महाकाश्यप द्वारा अभिधर्म मातृकाओं के संगायन का
ही उल्लेख है। हमारी इस सम्भावना का अपलाप करना शक्य नहीं है कि उस समय वर्तमान
अभिधर्म ग्रन्थों का अस्तित्व ही नहीं था। सौत्रान्तिकों का यह कथन वस्तुस्थिति को
ही प्रकट करता है कि सात ग्रन्थों वाला अभिधर्म शास्त्र है,
न कि सूत्र तथा हम सूत्र को प्रमाण मानने वाले हैं,
न कि शास्त्र को प्रमाण मानने वाले। उनका ऐसा कहना साम्प्रदायिक
प्रवृत्ति का द्योतक भी नहीं कहा जा सकता, क्यांेकि जब वैभाषिक ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थांे को
बुद्धवचन के रूप में प्रतिपादित करते हैं, तब स्थविर धर्मत्रात द्वारा संगृहीत उदानवर्ग को दृष्टान्त
के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अर्थात् बुद्ध के द्वारा प्रकीर्ण (बिखरे हुए) रूप
में उपदिष्ट वचनों का धर्मत्रात द्वारा किया हुआ ‘उदान’ नामक संग्रह जैसे बुद्धवचन माना जाता है। वैसे ही
ज्ञानप्रस्थान आदि भी संगृहीत ग्रन्थ हैं। अतः उन्हें भी बुद्धवचन मानना चाहिए।
किन्तु सौत्रान्तिक उदानवर्ग को भी शास्त्र ही मानते हैं,
न कि सूत्र।
परवर्ती सौत्रान्तिक आचार्य, जिन पर महायान का अधिक प्रभाव था,
वे भी यही मानते हैं कि सर्वास्तिवादी आदि निकायों के
अभिधर्मग्रन्थ बुद्धवचन नहीं है। महायानी आचार्यों का मत भी प्रायः इसी प्रकार का
है। सात अभिद्दर्म ग्रन्थों एवं धर्मत्रातकृत उदानवर्ग का आंशिक बुद्धवचनत्व ही
उन्हें मान्य है। इन ग्रन्थों में जो सूत्रवचन उद्धृत हैं,
उन सूत्रवचनों को ही वे बुद्धवचन के रूप में मान्यता प्रदान
करते हैं। आचार्य वसुबन्धु का मत भी उनके अभिद्दर्मकोश और उसके स्वभाष्य आदि में
इसी प्रकार परिलक्षित होता है।
बुद्धवचनों की नेय-नीतार्थता
बुद्ध के बाद उनके अनुयायियों में उनके वचनों की व्याख्या की दो पद्धतियाँ
दृष्टिगोचर होती हैं। एक पद्धति में त्रिपिटक के विशिष्ट वचनों एवं सन्दर्भों की
ही व्याख्या की जाती है, न कि समस्त बुद्धवचनों का सामंजस्य या समन्वय सिद्ध किया जाता
है। दूसरी पद्धति में न केवल क्लिष्ट वचन और सन्दर्भों का ही अभिप्राय स्पष्ट किया
जाता है,
अपितु समस्त बुद्धवचनों का समन्वय भी सिद्ध किया जाता है।
इसी दूसरी पद्धति द्वारा बुद्धवचनों को नेयार्थता एवं नीतार्थता का विभाजन एवं
अभिप्राय और अभिसन्धि का आश्रय ग्रहण करके इष्ट की सिद्धि की गई है।
इस दूसरी पद्धति के पुरस्कर्ता एवं प्रथम प्रमुख आचार्य महायानपथ के प्रदर्शक
नागार्जुन थे। स्थविरवाद, वैभाषिक आदि निकाय-परम्परा में भी सूत्रव्याख्यान के अवसर
पर नेयार्थ-नीतार्थ की चर्चा दृष्टिगोचर होती है। सौत्रान्तिक परम्परा में भी यह
पद्धति उपलब्ध होती है। सौत्रान्तिकों के भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। यह सम्भव है कि
प्राचीन सौत्रान्तिकों में यह मान्यता प्रचलित न हो, किन्तु आचार्य वसुमित्र (सौत्रान्तिक) ने अपने
समयभेदों-परचनचक्र नाम के ग्रन्थ में लिखा है कि क्योंकि सभी सूत्रवचन नीतार्थ
विषयक नहीं हैं, अतः सभी सूत्र नीतार्थ ही न होकर वे नेयार्थ भी होते हैं।
आचार्य वसुमित्र एवं भदन्त सुभूतिघोष आदि के ग्रन्थों में यद्यपि यह लिखा हुआ
है कि सौत्रान्तिकों को भी बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता अभीष्ट है,
किन्तु कौन सूत्र नीतार्थ हैं और कौन नेयार्थ हैं-इसका
स्पष्ट निर्देश नहीं है। परवर्ती आचार्य धर्मकीर्ति एवं शुभगुप्त के ग्रन्थों से
प्रतीत होता है कि ये प्रथम धर्मचक्र से सम्बद्ध सूत्रों को नीतार्थ तथा
प्रज्ञापारमिता सूत्रों को नेयार्थ मानते हैं, क्योंकि ये प्रज्ञापारमिता सूत्रों को बुद्धवचन मानकर उनका
अभिप्राय प्रकट करते हैं। अतः वे सूत्र आभिप्रायिक अर्थात् नेयार्थ हैं।
आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में प्रमाणसमुच्चय के दुरूह स्थलों की
टीका करते हुए बाह्यार्थवादी दृष्टि से प्रज्ञापारमितासूत्रों का अभिप्राय प्रकट
किया है। उन्होंने कहा है कि प्रज्ञापारमितासूत्रों में शून्यता,
निःस्वभावता आदि शब्दों का जो कई बार प्रयोग हुआ है,
उनका अर्थ शब्दशः नहीं ग्रहण करना चाहिए। भगवान् ने उनका
प्रयोग साभिप्राय किया है। अतः उनके अभिप्राय का अन्वेषण करना चाहिए। फलतः वे
सूत्र आभिप्रायिक अर्थात् नेयार्थ हैं, न कि नीतार्थ।
आचार्य वसुमित्र के अनुसार महायानसूत्रों के सर्वधर्म-निःस्वभावता,
शून्यता आदि पदों का अभिप्राय स्वतन्त्र सृष्टिकर्ता
(ईश्वर),
कर्मकर्ता और फलभोक्ता (आत्मा) का निषेध है तथा सभी धर्मों
की क्षणभङ्गता का प्रतिपादन है और अतीत, अनागत धर्मों की द्रव्यसत्ता का निषेध है। निःस्वभावता,
शून्यता आदि निषेधावाचक पद खपुष्प के समान अत्यन्ताभाव का
प्रकाशन नहीं करते, अपितु अल्पता प्रकट करते हैं। जैसे धन की अल्पता को धन का
अभाव कहा जाता है। अथवा ये निषेधवचन कुत्सित अर्थ को प्रकट करते हैं,
जैसे कुपुत्र को अपुत्र कहते हैं। क्योंकि सभी संस्कृत
धर्मों की सत्ता अत्यल्प क्षणमात्र होती है और असंस्कृत धर्मों की तो सत्ता होती
ही नहीं,
अतः सभी संस्कृत, असंस्कृत धर्मों को भगवान् ने शून्य कहा है। क्योंकि
निर्वाण से अतिरिक्त सभी धर्म रिक्त, तुच्छ एवं निःसार हैं, अतः कुत्सित एवं निरुपादेय होने से भी वे निःस्वभाव या
शून्य कहे गये हैं।
आचार्य धर्मकीर्ति ने अन्य प्रकार से उनका अभिप्राय प्रकट किया है। उनका कहना
है कि धर्मों में जो सामान्य-विशेषभाव, कार्यकारणभाव, लक्ष्यलक्षणभाव, आश्रयाश्रयिभाव आदि दिखालाई पड़ते हैं,
उन सारे सम्बन्धों की द्रव्यसत्ता या परमार्थसत्ता बिल्कुल
नहीं है-इसी बात को ध्यान में रखकर भगवान् ने प्रज्ञापारमितासूत्रों में सभी
द्दर्मों को निःस्वभाव या शून्य कहा है, जैसे प्रमाणवार्तिक में उन्होंने कहा है:
व्यापारोपाधिकं सर्वं स्कन्धादीनां विशेषतः।
लक्षणं स च तत्त्वं न तेनाप्येते विलक्षणाः।।
(प्रमाणवार्तिक 2: 216)
धर्मकीर्ति के बाद जो सौत्रान्तिक आचार्य हुए, उन सभी ने इन्हीं युक्तियों का अनुसरण किया है।
मध्यमकालंकार और उसकी पंजिका में सौत्रान्तिकों के बारे में यही लिखा है कि वे
बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता का विभाजन करते हैं। ऐसा कहकर वहाँ
सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त के मतों का खण्डन भी किया गया है।
संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि नागार्जुन से पूर्ववर्ती सौत्रान्तिक सभी
बुद्धवचनों को नीतार्थ ही मानते थे। भद्रचर्या-प्रणिधानसूत्र,
षडायतन आदि सूत्र ही उनके आधारभूत प्रमुख सूत्र थे।
महायानसूत्रों को वे बुद्धवचन मानने के पक्ष में नहीं थे। परवर्ती सौत्रान्तिक
अन्य निकायवादियों के समान बुद्धवचनों की नेयनीतार्थता पर विचार करते हुए
दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी प्रमुख युक्तियाँ क्या थीं,
इसका उल्लेख उपलब्ध नहीं है। आचार्य शुभगुप्त,
धर्मकीर्ति आदि की युक्तियाँ ही प्रधान प्रतीत होती हैं।
इतना होने पर भी ऐसा लगता है कि नेयार्थ-नीतार्थ विषयक चर्चा का सौत्रान्तिक मत
मंे उतना महत्त्व नहीं है, जितना योगाचार और माध्यमिक मतों में है।
निष्कर्ष- सौत्रान्तिक निकाय का अस्तित्व तो तृतीय संगीति के अवसर पर सम्राट्
अशोक के काल में विद्यमान था, किन्तु दार्शनिक प्रस्थान के रूप में उसका विकास सम्भवतः
ईसा पूर्व प्रथम शतक में सम्पन्न हुआ।
निकाय के साथ सौत्रान्तिक शब्द का प्रयोग तो सम्भवतः तब प्रारम्भ हुआ,
जब अन्य निकायों और मान्यताओं के बीच विभाजन-रेखा अधिक
सुस्पष्ट हुई। सात अभिधर्म ग्रन्थों का संग्रह परवर्ती है,
इसलिए बुद्धवचनों के रूप में सौत्रान्तिकों ने उन्हें
मान्यता प्रदान नहीं की। सूत्रपिटक और विनयपिटक को प्रामाणिक बुद्धवचन मानकर
सौत्रान्तिकों ने अपने सिद्धान्तों की अन्य निकायों से अलग स्थापना की। तभी से
सौत्रान्तिक निकाय की परम्परा प्रारम्भ हुई। ऐसा लगता है कि अन्य लोगों ने जब
बुद्धवचनों का अभिधर्मपिटक के रूप में संग्रह किया और उन्हें बुद्धवचन के रूप में
माना,
तब प्रारम्भ में सौत्रान्तिकों ने
विरोध किया होगा, किन्तु अन्य निकाय वालों ने उनका विरोध मानने से इन्कार कर
दिया होगा, तब विवश होकर उन्होंने पृथक् निकाय की स्थापना की। यह घटना द्वितीय बुद्धाब्द
में घटनी चाहिए। महाराज अशोक के काल में सभी निकायों के त्रिपिटक अस्तित्व में आ
गये थे। इसीलिए अशोक के समय कथावत्थु नामक ग्रन्थ में अन्य मतों की समालोचना सम्भव
हो सकी। इसलिए यह निश्चित होता है कि अभिधर्म का बुद्धवचन सम्बन्धी विवाद एवं
सौत्रान्तिक निकाय का गठन उससे पूर्ववर्ती है। यही विवाद अन्ततोगत्वा अन्य निकायों
से सौत्रान्तिक निकाय के पृथक् होने के रूप में परिणत हुआ। यही सौत्रान्तिक निकाय
के उ०म का हेतु और काल है।
निकाय के लिए सौत्रान्तिक नाम अत्यन्त सार्थक है। श्रवण मात्र से उनके विचारों
और सिद्धान्तों का स्थूल अवबोद्द हो जाता है। समय-समय पर उनके लिए अन्य नाम भी
प्रयुक्त हुए, जैसे कभी हेतुवादी, कभी उत्तरापथिक आदि। दाष्र्टान्तिक भी एक अत्यधिक प्रचलित
उनका नाम है। यशोमित्र ने सौत्रान्तिकों के लिए ‘दाष्र्टान्तिक-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है। इसका यह मतलब नहीं है कि
दाष्र्टान्तिक नाम का सौत्रान्तिकों में कोई सम्प्रदाय था,
अपितु ऐसा कहने के पीछे यशोमित्र का अभिप्राय यह था कि यह
मत कुछ विशिष्ट सौत्रान्तिक आचार्यों का है। क्यांेकि ये लोग बुद्धवचनों का
अभिप्राय जनता के बीच दृष्टान्त के माध्यम से स्पष्ट करते थे,
अतः इस विशेषता के कारण उनका नाम ‘दाष्र्टान्तिक’ पड़ा। यह उचित भी था, क्योंकि भगवान् बुद्ध ने भी अधिकतर दृष्टान्तों के द्वारा
ही अपना अभिमत प्रकाशित किया था। इस विधि से बड़ी आसानी से लोग तत्त्व का अवबोध कर
लेते हैं। भगवान् बुद्ध की इसी शैली का सौत्रान्तिकों ने अनुकरन किया। यही शैली
आगे चलकर बौद्ध न्याय शास्त्र के विकास की आधार बनी। बौद्ध न्यायशास्त्र के विकास
में सौत्रान्तिकों का योगदान विद्वानों से छिपा नहीं है। दार्शनिक प्रस्थान के रूप
में उसका विकास चतुर्थ या पंचम बुद्धाब्द में सम्पन्न हुआ।
सारांश- भगवान् बुद्ध का आविर्भाव ऐसी परिस्थिति में हुआ था,
जब मानवीय मूल्य गिर गये थे और सांस्कृतिक दृष्टि से समाज
संकटापन्न अवस्था में था। बुद्धत्व-प्राप्ति के बाद 45 वर्षों तक उन्होंने गाँव-गाँव और नगर-नगर में चारिका करके
अनाथ,
अनाश्वस्त और दुःखी जनों को अपने उपदेश रूपी अमृत से तृप्त
एवं आश्वस्त किया। 80 वर्ष की आयु में जगत् के एक मात्र शरण और जगत् के एकमात्र
हितैषी बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया। उनके अनुयायियों ने अपनी-अपनी
सामथ्र्य के अनुसार उनके उपदेशों का संग्रह किया, संरक्षण किया और देश-विदेश में उनके विचारों का
प्रचार-प्रसार किया। मानव-कल्याण का जो लक्ष्य बुद्ध के सम्मुख था,
उसकी पूर्ति वे शताब्दियों तक करते रहे और आज भी अपनी
शक्तिभर सम्पन्न कर रहे हैं। उनके अनुयायियों में बड़े-बड़े विद्वान्,
साधक और अर्हत् हुए, जिन्हें सूत्रधर, विनयधर, धर्मधर और मातृकाधर कहते थे। कालक्रम में उनके अनुयायियों
की वह परम्परा अनेक निकायों में विभक्त हो गई। उसी क्रम में सूत्रधरों की परम्परा पहले
सौत्रान्तिक निकाय के रूप में और आगे चलकर सौत्रान्तिक दर्शनप्रस्थान के रूप में
विकसित हुई।
प्रमुख सौत्रान्तिक सिद्धान्त
सौत्रान्तिकों की जो प्रमुख विशेषताएं हैं, जिनकी वज़ह से वे अन्य बौद्ध, अबौद्ध दार्शनिकों से भिन्न हो जाते हैं,
अब हम उन विशेषताओं की ओर संकेत करना चाहते हैं।
ज्ञात है कि बौद्ध धर्म में अनेक निकायों का विकास हुआ। यद्यपि उनकी दार्शनिक
मान्यताओं में भेद हैं, फिर भी बुद्धवचनों के प्रति गौरव बुद्धि सभी में समान रूप
से पाई जाती है। सभी निकायों के पास अपने-अपने त्रिपिटक थे। ऐतिहासिक क्रम में
महायान का भी उदय हो गया। यह निःसन्दिग्ध है कि पुरुषार्थ-सिद्धि सभी भारतीय
दर्शनों का परम लक्ष्य है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर बौद्धों में यानों की
व्यवस्था की गई है। उनके दर्शनों का गठन भी यानव्यवस्था पर आधारित है। इसके
आधारभूत तत्त्व तीन होते हैं, यथा- (1) आश्रय, वस्तु आलम्बन या पदार्थ, (2) आश्रित मार्ग (शील, समाधि, प्रज्ञा),
(3) प्रयोजन या लक्ष्यभूत फल।
(1) आश्रय, वस्तु या पदार्थ-मीमांसा के अवसर पर दो सत्यों अर्थात्
परमार्थ सत्य और संवृति सत्य की चर्चा की जाती है।
परमार्थ सत्य- सौत्रान्तिकों की दो धाराओं में से आगम-अनुयायी सौत्रान्तिकों
के अनुसार यन्त्र आदि उपकरणों के द्वारा विघटन कर देने पर अथवा बुद्धि द्वारा
विश्लेषण करने पर जिस विषय की पूर्व बुद्धि नष्ट नहीं होती,
वह ‘परमार्थ सत्य’ है। यथा- नील, पीत, चित्त, परमाणु, निर्वाण आदि का कितना ही विघटन या विश्लेषण किया जाए,
फिर भी नीलबुद्धि, परमाणुबुद्धि या निर्वाणबुद्धि नष्ट नहीं होती,
अतः ऐसे पदार्थ उनके मत में परमार्थ सत्य माने जाते हैं। इस
मत में चारों आर्यसत्यों के जो सोलह आकार होते हैं, वे परमार्थतः सत् माने जाते हैं। ज्ञात है कि प्रत्येक सत्य
के चार आकार होते हैं। जैसे दुःखसत्य के अनित्यता, दुःखता, शून्यता एवं अनात्मता ये चार आकार हैं। समुदय सत्य के समुदय,
हेतु, प्रत्यय और प्रभव ये चार आकार,
निरोध सत्य के निरोध, शान्त, प्रणीत एवं निःसरण ये चार आकार तथा मार्गसत्य के मार्ग,
न्याय, प्रतिपत्ति और निर्याण ये चार आकार होते हैं। इस तरह कुल 16 आकार होते हैं।
युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक मत के अनुसार जो परमार्थतः अर्थक्रिया-समर्थ है और
प्रत्यक्ष आदि प्रामाणिक बुद्धि का विषय है, वह ‘परमार्थ सत्य’ है, जैसे- घट आदि। इस मत के अनुसार योगी का समाहित ज्ञान
संस्कार (हेतु-प्रत्यय से उत्पन्न) स्कन्धों का ही साक्षात् प्रत्यक्ष करता है तथा
उनकी आत्मशून्यता और निर्वाण का ज्ञान तो उस प्रत्यक्ष के सामथ्र्य से होता है।
संवृतिसत्य- इस मत में पाँच स्कन्ध संवृतिसत्य हैं। परमार्थतः अर्थक्रियासमर्थ
न होना संवृतिसत्य का लक्षण है। संवृतिसत्य, सामान्यलक्षण, नित्य, असंस्कृत एवं अकृतक
धर्म पर्यायवाची हैं। संवृति का तात्पर्य विकल्प ज्ञान से है। उसके प्रतिभास
स्थल में जो सत्य है, वह संवृतिसत्य है। विकल्प को संवृति इसलिए कहते हैं,
क्योंकि वह वस्तु की यथार्थ स्थिति के ग्रहण में आवरण करता
है। आगमानुयायी सौत्रान्तिकों के अनुसार यन्त्र आदि उपकरणों द्वारा विघटन करने पर
या बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जिन पदार्थों की पूर्वबुद्धि नष्ट हो जाती है,
वे संवृतिसत्य हैं, यथा- घट, अम्बु आदि।
इस दर्शन में पाँच प्रकार के प्रमेय माने जाते हैं,
यथा- रूप, चित्त, चैतसिक, विप्रयुक्त संस्कार एवं असंस्कृत निर्वाण। ये स्कन्ध,
आयतन और धातुओं में यथायोग्य संगृहीत होते हैं।
(2) आश्रित मार्ग
जिस मार्ग की भावना की जाती है, वह मार्ग वस्तुतः सम्यग् ज्ञान ही है। नैरात्म्य ज्ञान,
चारों आर्यसत्यों के सोलह आकारों का ज्ञान,
सैंतीस बोधिपक्षीय धर्म, चार अप्रमाण, नौ अनुपूर्व समापत्तियाँ-ये धर्म यथायोग्य लौकिक और अलौकिक
मार्गों मंे संगृहीत होते हैं।
(3) फल
òोत आपन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत् ये चार आर्य पु०ल होते हैं। ये चारों
मार्गस्थ और फलस्थ दो प्रकार के होते हैं, अतः आर्यपु०लों की संख्या आठ मानी जाती है। सोपधिशेष
निर्वाण प्राप्त और निरुपधिशेष निर्वाण प्राप्त-इस तरह अर्हत् पु०ल भी द्विविध
होते हैं। प्रत्येकबुद्धत्व और सम्यक् संबुद्धत्व भी फल माने जाते हैं।
बुद्धत्वप्राप्ति और अर्हत्वप्राप्ति के मार्ग में यद्यपि ज्ञानगत कोई विशेषता इस
मत में नहीं मानी जाती, किन्तु पारमिताओं की पूर्ति का दीर्घकालीन अभ्यास अर्थात्
पुण्यसंचय बुद्धत्वप्राप्ति के मार्ग की विशेषता मानी जाती है।
फलस्थ पु०ल
जैसे श्रावकयान में चार मार्गस्थ और चार फलस्थ आठ आर्यपु०ल माने जाते हैं,
वैसे ही इस मत के अनुसार प्रत्येकबुद्धयान में भी आर्य
पु०लों की व्यवस्था की जाती है। किन्तु खङ्गोपम प्रत्येकबुद्ध निश्चय ही अर्हत् से
भिन्न होता है। वह बुद्ध आदि के उपदेशों की बिना अपेक्षा किये आन्तरिक स्वतः
स्फूर्त ज्ञान द्वारा निर्वाण का अधिगम करता है। उसका निरुपधिशेष निर्वाण बुद्ध से
शून्य देश और काल में होता है। मार्गस्थ और फलस्थ आर्य पु०लों के पारमा£थक संघ में बीस प्रकार के पु०ल होते हैं। इनका विस्तृत
विवेचना अभिसमयालङ्कार और अभिधर्मकोश आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है।
सौत्रान्तिक दर्शन की दस विशेषताएं
(1) क्षणभङ्ग सिद्धि
बौद्ध लोग, जो प्रत्येक वस्तु के उत्पाद, स्थिति और भङ्ग ये तीन लक्षण मानते हैं,
उनको लेकर बौद्धेतर दार्शनिकों के साथ उनके बहुत व्यापक,
गम्भीर और दीर्घकालीन विवाद हैं। सौत्रान्तिकों के अनुसार
उत्पाद के अनन्तर विनष्ट होनेवाली वस्तु ही क्षण है। उनके अनुसार उत्पादमात्र ही
वस्तु होती है। वस्तु की त्रैकालिक सत्ता नहीं होती। कारण-सामग्री के जुट जाने पर
कार्य का निष्पन्न होना ही उत्पाद है। उत्पन्न की भी स्थिति नहीं होती,
अपितु उत्पाद के अनन्तर वस्तु नहीं रहती,
यही उसकी भङ्गावस्था है।
(2) सूत्रप्रामाण्य
सौत्रान्तिकों के मतानुसार ज्ञानप्रस्थान आदि सात अभिधर्मशास्त्र बुद्धवचन
नहीं हंै,
अपितु वे आचार्यों की कृति हैं। वसुमित्र आदि आचार्य उन
ग्रन्थों के प्रणेता हैं, अतः वे शास्त्र हैं, न कि बुद्धवचन या आगम। ऐसा मानने पर भी अर्थात् सूत्रपिटक
मात्र को प्रमाण मानने पर भी इनके मत में अभिधर्म का आभाव या त्रिपिटक का अभाव
नहीं है। जिन सूत्रों में वस्तु के स्वलक्षण और सामान्यलक्षण आदि की विवेचना की गई
है,
वे सूत्र ही अभिधर्म हैं, जैसे अर्थविनिश्चयसूत्र आदि। बुद्धवचन 84,000 धर्मस्कन्ध, 12 अङ्ग एवं तीन पिटकों में संगृहीत होते हैं। परवर्ती
सौत्रान्तिक सूत्रों का नेयार्थ और नीतार्थ में विभाजन भी करते हैं।
(3) परमाणुवाद
सौत्रान्तिक मत में परमाणु निरवयव एवं द्रव्यसत् माने जाते हैं। ये परमाणु ही
स्थूल रूपों के आरम्भक होते हैं। जब परमाणुओं से स्थूल रूपों का आरम्भ होता है,
तब एक संस्थान में विद्यमान होते हुए भी इनमें परस्पर
स्पर्श नहीं होता। सौत्रान्तिक मत में ऐसा कोई रूप नहीं होता,
जो अनिदर्शन और अप्रतिघ होता हो,
जैसा कि अविज्ञप्ति नामक रूप की सत्ता वैभाषिक मानते हैं।
इनके अनुसार अविज्ञप्तिरूप की स्वलक्षणसत्ता नहीं है,
उसकी मात्र प्रज्ञप्तिसत्ता है।
(4) द्रव्यसत्त्व-प्रज्ञप्तिसत्त्व
सौत्रान्तिकों के अनुसार वे ही पदार्थ द्रव्यसत् माने जाते हैं,
जो अपने स्वरूप को स्वयं अभिव्यक्त करते हैं तथा जिनमें
अध्यारोपित स्वरूप का लेशमात्र भी नहीं होता। उदाहरणस्वरूप रूप,
वेदना आदि धर्म वैसे ही हैं। जब रूप आदि धर्म अपने स्वरूप
का या अपने आकार का अपने ग्राहक ज्ञानों में, ज्ञानेन्द्रियों अथवा आर्य ज्ञानों में आद्दान (अर्पण) करते हैं,
तब वे किसी की अपेक्षा नहीं करते,
अपितु स्वतः अपने बल से करते हैं। अपि च,
चक्षुरादि प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा योगिज्ञान जब रूप आदि का
साक्षात्कार करते हैं, तब वे भी उसमें किसी कल्पित आकार का आरोपण नहीं करते। इसलिए
रूप,
वेदना आदि इनके मत में द्रव्यसत् या परमार्थसत् माने जाते
हैं। पु०ल आदि धर्म वैसे नहीं हैं। वे अपने स्वरूप का स्वतः ज्ञान में आधान नहीं
करते। न तो ज्ञान में पु०ल आदि का आभास होता है। जब यथार्थ की परीक्षा की जाती है,
तब उनका स्वरूप विशीर्ण होने लगता है। केवल उनके अधिष्ठान
नाम-रूप आदि धर्म ही उपलब्ध होते हैं। पु०ल कहीं
उपलब्ध नहीं होता। अतः ऐसे धर्म प्रज्ञप्तिसत् माने जाते हैं।
यद्यपि सौत्रान्तिक भी वैभाषिकों के समान चैतसिकों की संख्या 46 ही मानते हैं, फिर भी वे वैभाषिकों के समान सभी की पृथक् द्रव्यसत्ता नहीं
मानते। उनके मत में कुछ चैतसिकों की ही द्रव्यसत्ता होती है,
शेष प्रज्ञप्तिसत् होते हैं। जैसे वेदना,
संज्ञा और मनस्कार ये तीन चैतसिक द्रव्यसत् हैं। बाकी के
चैतसिक चित्त की अवस्था विशेष में प्रज्ञप्त होते हैं-ऐसा उपशमरक्षित नामक
सौत्रान्तिक आचार्य का कहना है। इनके अनुसार चित्त एवं चैतसिक द्रव्यतः अभिन्न
होते हैं। उनकी निरपेक्ष रूप से पृथग् उपलब्धि नहीं होती।
सामान्यतः चित्तों की संख्या छह है। धर्मसंग्रह के अनुसार चैतसिक चालीस होते
हैं। अभिधर्मकोश के अनुसार उनकी संख्या 46 है। अभिधर्मसमुच्चय में 52 और पालि
अभिधर्म में भी चैतसिक 52 माने जाते हैं। विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि में 51 चैतसिक व£णत हैं। इन भेदों का कारण चैतसिकों का चित्त की अवस्थाविशेष
में प्रज्ञप्त होना है। इसीलिए संख्या और नाम में भेद हो जाता है। यदि इनकी
द्रव्यसत्ता होती तो इतना अधिक भेद सम्भव नहीं होता-ऐसा प्रतीत होता है।
चैतसिकों को जब प्रज्ञप्तिसत् कहा जाता है तो उसका यह अर्थ नहीं होता कि उनकी
सत्ता ही नहीं है। चित्त और चैतसिक द्रव्यतः अथवा स्वभावतः अभिन्न होते हैं। जब
चित्त द्रव्यतः सत् माना जाता है तो चित्त की अवस्थाएं,
जो उससे अभिन्न हैं और जो चैतसिक कहलाती हैं,
निश्चय ही वे भी द्रव्यसत् ही हैं। उन (चैतसिकों) का
स्वभावतः चित्त से पृथक्त्व (भेद) और नामकरण आदि अवश्य प्रज्ञप्त है। वस्तुतः
वेदना,
संज्ञा आदि, करुणा, मुदिता आदि, राग, द्वेष आदि कुशल, अकुशल धर्म स्वसंवेदनप्रत्यक्ष द्वारा अनुभूत होते हैं।
स्वसंवेदन द्वारा जो जैसा अनुभूत होता है, वैसा ही उसका स्वरूप होता है, अन्यथा स्वसंवेदन के प्रमाणत्व की हानि होगी। चित-चैतसिकों
की प्रकाशात्मकता, जड़ से भिन्नता, विषय के आकार से आकारित ज्ञानस्वरूपता स्वतः (स्वसंवेदन
द्वारा) अनुभूत हैं, अतः उनका स्वरूप वैसा ही है। संक्षेप में चित्त-चैतसिकों के
प्रामाण्य, अप्रमाण्य, प्रत्यक्षत्व, अप्रत्यक्षत्व, यह चित्त है, यह चैतसिक है, यह वेदना है, यह संज्ञा हैं-इस प्रकार के भेद और नाम ये सब व्यवहार
द्वारा सिद्ध होते हैं। अतः भेद और नामकरण आदि ही प्रज्ञप्तिसत् हैं। इस प्रकार
सभी सम्प्रयुक्त धर्म (चैतसिक), विप्रयुक्त संस्कार, असंस्कृत धर्म, शब्द और कल्पना के विषय अर्थात् अपोह ये सब प्राज्ञप्तिक
धर्मों में परिगणित होते हैं। वस्तुतः युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों के मत में सभी
पराश्रित या द्रव्याश्रित धर्म प्रज्ञप्तिस्वभाव माने जाते हैं।
(5) ज्ञान की साकारता
वैभाषिक आदि दर्शन के अनुसार रूप आदि विषयों का ग्रहण चक्षु आदि इन्द्रियों के
द्वारा होता है, ज्ञान द्वारा नहीं। इन्द्रियों के द्वारा गृहीत नील,
पीत आदि विषयों का चक्षु£वज्ञान आदि इन्द्रिय-विज्ञान अनुभव करते हैं। अर्थात्
इन्द्रियों में प्रतिबिम्बित आकार ही इन्द्रियविज्ञानों का विषय हुआ करता है,
अन्यथा विज्ञान बिना आकार के ही होता है।
सौत्रान्तिक दर्शन के अनुसार नील, पीत आदि विषय अपना आकार स्वग्राहक ज्ञान में अ£पत करते हैं, फलतः विज्ञान विषयों के आकार से आकारित हो जाते हैं।
ज्ञानगत आकार के द्वारा ही विषय अपने को प्रकाशित करते हैं। यदि ऐसा नहीं माना
जाएगा तो विज्ञान की बिना अपेक्षा किये ही विषय का प्रकाश होने लगेगा। अतः जहाँ
विषय का अवभास होता है, वह ज्ञान ही है। फलतः ज्ञान में प्रतिभासित नील,
पीत आदि विषयों की बाह्यसत्ता सिद्ध होती है।
साकार ज्ञानों के भेद
ज्ञानगत आकार के बारे में तीन प्रकार के मत पाये जाते हैं,
यथा- ग्राह्य-ग्राहक समसंख्या वाद,
नाना अद्वैत वाद तथा नाना अनुपूर्वग्रहण वाद,
इसे अर्धाण्डाकार वाद भी कहते हैं।
(क) ग्राह्य-ग्राहक समसंख्या वाद- नील,
पीत आदि अनेक वर्णों से युक्त चित्र का दर्शन करते समय
चित्र में जितने वर्ण होते हैं, उतनी ही संख्या में वर्णप्रतिबिम्बित विज्ञान भी होते हैं।
जैसे चित्र के वर्ण परस्पर भिन्न और पृथक्-पृथक् अवस्थित होते हैं,
वैसे ही वे विज्ञान भी होते हैं,
अन्यथा विषय और ज्ञान का निश्चित नियम नहीं बन सकेगा। इस
वाद के अनुसार चित्र में जितने वर्ण होते हैं, उतने ही विज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं।
(ख) नाना अद्वैत वाद- यद्यपि नाना वर्ण वाले चित्रपट को
आलम्बन बनाकर अनेक आकारों से युक्त विज्ञान उत्पन्न होता है,
तथापि वह चक्षु£वज्ञान एक ही होता है। एक विज्ञान का अनेक आकारों से युक्त
होना न तो असम्भव है और न विरुद्ध ही। क्योंकि अनेक वर्णों का आभास ज्ञान में
एकसाथ ही होता है। ज्ञान के अन्दर विद्यमान वे अनेक आकार एक ज्ञान के ही अंश होते
हैं,
न कि पृथक्। इस मत के अनुसार वह चित्र भी अनेक वर्णवाला
होने पर भी द्रव्यतः एक और अभिन्न ही होता है। उसमें स्थित सभी वर्ण उस चित्र के
अंश ही होते हैं।
(ग) नाना अनुपूर्वग्रहण वाद- जिस प्रकार एक चित्र में नील,
पीत आदि अनेक वर्ण अलग-अलग स्थित होते हैं,
वैसे ज्ञान में भी अनेकता होना आवश्यक नहीं है। उस चित्र को
ग्रहण करनेवाला चक्षु£वज्ञान एक होते हुए भी उन सभी वर्णों का साक्षात्कार करता
है। इस मत के अनुसार अनेक वर्णों के ज्ञान के लिए ज्ञान का अनेक होना आवश्यक नहीं
है।
यह विषय बड़ा गम्भीर है। घट, पट आदि अनेक वस्तुओं को एक साथ देखने वाला चक्षु£वज्ञान क्या एक होता है या अनेक। फिर केवल एक विषय को
देखनेवाला चक्षु£वज्ञान तो सम्भव ही नहीं है। क्योंकि प्रत्येक विषय के अपने
अवयव होते हैं। चक्षु£वज्ञान जब एक विषय को देखता है तो उसके अवयवों को भी देखता
है। तब क्या उन अवयवों के अनुरूप अनेक चक्षु£वज्ञान होते हैं अथवा एक ही चक्षु£वज्ञान होता है ? इस विषय में विद्वानों के अनेक मत हैं।
यह उपर्युक्त मत आगमानुयायी सौत्रान्तिकों का प्रतीत होता है। धर्मकीर्ति ने
प्रमाणवार्तिक में युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों की दृष्टि से समीक्षा की है। इस
मत के अनुसार चक्षु£वज्ञान क्रमशः नीचे के, मध्य के तथा ऊपर के भाग को ग्रहण करता है। इसलिए समसंख्या
वाद के और नाना अद्वैतवाद के दोष इस मत में नहीं आते।
यदि ज्ञान अनुक्रम से विषय का ग्रहण करता है तो एक साथ ग्रहण करने की प्रतीति
कैसे होती है ? शीघ्रता से घटित होने के कारण एकसाथ ग्रहण करने की भ्रान्ति होती है,
जैसे अलीतचक्र के ग्रहण के समय होती है।
(6) कार्य और कारण की भिन्नकालिकता
कारण हमेशा कार्य से पूर्ववर्ती होता है, इस पर सौत्रान्तिकों का बड़ा आग्रह है। कार्य सर्वदा कारण के
होने पर होता है (अन्वय) और न होने पर नहीं होता है (व्यतिरेक)। यदि कार्य और कारण
दोनों समान काल में होंगे तो कारण में कार्य को उत्पन्न करने के स्वभाव की हानि का
दोष होगा,
क्यांेकि कारण के काल में कार्य विद्यमान ही है। इस स्थिति
में कारण की निरर्थकता का भी प्रसंग (दोष) होगा। इसलिए वैभाषिकों को छोड़कर
सौत्रान्तिक आदि सभी बौद्ध दार्शनिक परम्पराएं कारण को कार्य से पूर्ववर्ती ही
मानती हैं। वैभाषिक कारण को कार्य का समकालिक तो मानते ही हैं,
कभी-कभी तो कार्य से पश्चात्कालिक कारण भी मानते हैं।
स्थविरवादी भी सहभू हेतु, पश्चाज्जात हेतु आदि मानते हैं।
(7) प्रहाण और प्रतिपत्ति
वैभाषिक आदि जैसे अर्हत् के द्वारा प्राप्त क्लेशप्रहाण और प्राप्त आर्यज्ञान
की हानि (पतन) मानते हैं, वैसे सौत्रान्तिक नहीं मानते। सौत्रान्तिकों का कहना है कि
क्लेशप्रहाण और आर्यज्ञान का अधिगम चित्त के धर्म हैं और चित्त के दृढ़ होने से
उनके भी दृढ़ होने के कारण उनकी हानि की सम्भावना नहीं है। इस विषय का विस्तृत
विवरण प्रमाणवार्तिक (1: 206) और उसके अलंकारभाष्य में अवलोकनीय है।
(8) ध्यानाङ्गों की विशेषता
नौ समापत्तियाँ (4 रूपी, 4 अरूपी और निरोधसमापत्ति) होती हैं। इसमें सौत्रान्तिकों और
वैभाषिकों में मतभेद नहीं है। किन्तु निरोधसमापत्ति के बारे में सौत्रान्तिकों की
कुछ विशेषता है। वैभाषिकों के अनुसार निरोधसमापत्ति अवस्था में चित्त और चैतसिकों
का सर्वथा निरोध हो जाता है, यहाँ तक कि उनकी वासनाएं भी अवशिष्ट नहीं रहतीं। क्योंकि
वासनाओं की आधार चित्तसन्तति का सर्वथा निरोध हो चुका है। हाँ,
उनकी प्राप्ति आदि विप्रयुक्त संस्कार अवशिष्ट रह सकते हैं।
सौत्रान्तिकों के मतानुसार निरोधसमापत्ति चित्त की सूक्ष्म अवस्था है। ऐसा
नहीं है कि उस अवस्था में केवल विप्रयुक्त संस्कार ही अवशिष्ट रहते हों। हाँ,
वेदना, संज्ञा आदि स्थूल चित्त-चैतसिकों का उस अवस्था में अवश्य
निरोध हो जाता है। इस प्रकार निरोधसमापत्ति सौत्रान्तिकों के अनुसार सूक्ष्म
सचित्तावस्था है। उनका कहना है कि यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो उस अवस्था में
निर्जीव हो जाने का प्रसंग होगा और शरीर के सूखने और सड़ जाने का भी प्रसंग होगा।
और भी,
यदि निरोधसमापत्ति अवस्था में चित्त की कुछ भी सत्ता नहीं
होगी तो समापत्ति से उठते समय पुनः चित्त का उत्पाद भी न हो सकेगा,
क्योंकि पूर्ववर्ती चित्त ही परवर्ती चित्त का उत्पादक होता
है,
न कि शरीर, इन्द्रिय आदि। समापत्ति अवस्था में व्यक्ति समापन्न होता है
और उस समय समाधि उसका आहार होती है।
ध्यानाङ्गों के बारे में भी सौत्रान्तिकों की वैभाषिकों से कुछ विशेषता है।
ध्यानाङ्ग पाँच होते हैं, यथा- वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता। वैभाषिकों के अनुसार ‘प्रीति’ नामक ध्यानाङ्ग मनोविज्ञान से सम्प्रयुक्त सुखा वेदना है,
सौत्रान्तिकों के अनुसार वह सौमनस्य है। ‘सुख’ नामक ध्यानाङ्ग भी वैभाषिकों के अनुसार कायप्रश्रब्धि
स्वरूप है। उन (वैभाषिकों) के मतानुसार इन्द्रियविज्ञानों से सम्प्रयुक्त वेदनाएं
बाह्यमुखी होती हैं और
ध्यानाङ्गों में परिगणित धर्मों का बहिर्मुखी होना युक्त नहीं है,
अतः ध्यानावस्था की सुखा वेदना प्रश्रब्धिस्वरूप ही है।
सौत्रान्तिकों के मत में वह ‘सुख’ ध्यानाङ्ग चैतसिक न होकर कायिक सुख ही होता है। अर्थात् वह
सुख वेदना कायविज्ञान से सम्प्रयुक्त होती है। उनके अनुसार यह सही है कि
इन्द्रियविज्ञान बहिर्मुखी होते हैं, किन्तु ध्यान के बल से उत्पन्न वे विज्ञान समाधि के उपकारक
हो जाते हैं। प्रीति तो सभी बौद्ध दार्शनिकों के मतानुसार श्रद्धागत द्रव्य होती
है। अर्थात् श्रद्धाविशेष ही प्रीति है।
(9) प्रमाण आदि सम्यग्ज्ञान
विज्ञान की साकारता के आधार पर सौत्रान्तिक प्रमाणों की व्यवस्था करते हैं।
विज्ञान की साकारता का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। प्रमाणों में स्वसंवेदन
प्रत्यक्ष की स्थापना सौत्रान्तिकों की विशेषता है। सौत्रान्तिकों की ज्ञानमीमांसा
पर आगे पृथक् शीर्षक देकर लिखने जा रहे हैं। वहाँ ज्ञान और उनके भेदों की चर्चा की
जाएगी।
(10) बुद्ध, बोधिसत्त्व और बुद्धकाय
पारमिताओं की साधना के आधार पर बोधिसत्त्वों की चर्या का वर्णन सूत्रपिटक में
प्रायः जातकों में उपलब्ध होता है। बुद्धत्व ही बोधिसत्त्वों का अन्तिम पुरुषार्थ
है। क्योंकि उसके द्वारा ही वे बहुजन का हित सम्पादन करने में पूर्ण समर्थ होते
हैं। इसके लिए वे तीन असंख्येय कल्प पर्यन्त ज्ञानसम्भार और पुण्यसम्भार का अर्जन
करते हैं। जम्बूद्वीप का आर्य बोधिसत्त्व बुद्धत्व के सर्वथा योग्य होता है।
कामधातु के अन्य द्वीपों में तथा अन्य धातु और योनियों में उत्पन्न काय से
बुद्धत्व की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
काय
महायान से अतिरिक्त अन्य बौद्ध निकायों की इस विषय में प्रायः समान मान्यता है
कि भगवान् बुद्ध के दो काय होते हैं, यथा- रूपकाय और धर्मकाय। वैभाषिकों की यह मान्यता है कि
भगवान् बुद्ध का रूपकाय, जो बत्तीस लक्षणों और अस्सी अनुव्य॰जनों से प्रतिमण्डित है,
वह साòव होता है तथा माता-पिता के शुक्र-शोणित से उत्पन्न ‘करज काय’ होता है। सौत्रान्तिक में कुछ आगमानुयायी भी प्रायः इसी मत
के हैं। स्थविरवादी भी ऐसा ही मानते हैं। युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक रूपकाय को ‘बुद्ध’ ही मानते हैं, क्योंकि वह अनेक कल्पों तक सम्भारों का सम्भरण करने से
पुण्यपु॰जात्मक होता है।
धर्मकाय के स्वरूप के बारे में वैभाषिकों और सौत्रान्तिकों में विशेष मतभेद
नहीं है,
किन्तु धर्मकाय से सम्बद्ध जो निर्वाण तत्त्व है,
उसे वैभाषिक द्रव्यसत् मानते हैं। सौत्रान्तिकों के अनुसार
निर्वाण समस्त क्लेशों और उपक्लेशों का अभाव, मलों और आवरणों से रहितता मात्र है। अर्थात् निर्वाण का
अभावस्वरूप होना, उसकी धर्मता है और यही सर्व प्रप॰चों का उपशम है।
बुद्ध के कायिक, वाचिक और चैतसिक गुण, दस बल, दस वशिताएं, चार वैशारद्य, अष्टादश आवेणिक धर्म-इन सबकी चर्चा अभिधर्मकोश,
धर्मसङ्ग्रहसूत्र, अर्थविनिश्चयसूत्र, अभिधर्मसमुच्चय आदि ग्रन्थों मंे विपुलता से च£चत हैं।
ज्ञानमीमांसा
सौत्रान्तिकों की ज्ञानमीमांसा के विकास में आचार्य दिङ्नाग का योगदान
विद्वानों से तिरोहित नहीं है। यद्यपि उनसे पहले भी न्यायविद्या से सम्बद्ध
प्रमाणविद्या का अस्तित्व था, किन्तु वह इतना मिला-जुला था कि उसमें वैदिक,
अवैदिक, आदि भेद करना सम्भव नहीं था। दिङ्नाग के बाद हम उनमें
स्पष्ट विभाजन देख सकते हैं। बौद्धेतर शास्त्रों में आगम,
शब्द, ऐतिह्य आदि ज्ञान से भिन्न साधन भी प्रमाण माने जाते हैं
किन्तु आचार्य दिङ्नाग में सम्यग् ज्ञान को ही सर्वप्रथम प्रमाण निर्धारित किया।
विविध ज्ञान
(1) निर्विकल्प ज्ञान- अतीत, अनागत को विषय बनाने पर और प्रत्यक्षयके बाद वस्तु का जो
आकार ज्ञान में भासित होता है, वह अर्थप्रतिबिम्ब ‘अर्थसामान्य’ कहलाता है तथा शब्द सुनने के अनन्तर वस्तु का जो आकार ज्ञान
में भासित होता है, वह अर्थबिम्ब ‘शब्दसामान्य’ कहलाता है। जो ज्ञान इन बिम्बों (सामान्यों) से रहित होता
है या इन अर्थबिम्बों से संसृष्ट (युक्त) होने योग्य नहीं होता,
वह ज्ञान ‘निर्विकल्प’ कहलाता है।
(2) सविकल्प ज्ञान- जो ज्ञान उपर्युक्त शब्दसामान्य और अर्थसामान्य से संसृष्ट
या संसृष्ट होने योग्य होता है, वह ज्ञान ‘सविकल्पक’ कहलाता है।
(3) वस्तु-प्रवृत्त ज्ञान- जो ज्ञान वस्तु के बल से उत्पन्न होता है और वस्तु में
प्रवृत्त होता है, वह ज्ञान ‘वस्तुप्रवृत्त ज्ञान’ कहलाता है, जैसे- चक्षुर्विज्ञान आदि प्रत्यक्ष ज्ञान। ये ज्ञान शब्द
के बल से उत्पन्न नहीं होते।
(4) अपोह-प्रवृत्त ज्ञान- जो ज्ञान साक्षात् वस्तु में प्रवृत्त नहीं होता,
अपितु एक वस्तु का जो अन्य वस्तुओं से भेद (व्यावृत्ति)
होता है,
उस भेद में या उस भेद की वजह से भिन्न हुई भेदगर्भित वस्तु
में प्रवृत्त होता है, वह ज्ञान ‘अपोहप्रवृत्तज्ञान’ कहलाता है।
(5) सम्यग् ज्ञान- जो ज्ञान अपने विषय के प्रति अविसंवादक होता है। अर्थात्
अपने विषय को प्राप्त कराने की क्षमता रखता है, उसे ‘सम्यग् ज्ञान’ या यथार्थ ज्ञान कहते हैं। ऐसा ज्ञान प्रमाण भी होता है।
ज्ञान के विषय तीन प्रकार के होते हैं, यथा- (1) प्रतिभास विषय या ग्राह्य विषय,
(2) अध्यावसाय (निश्चय) विषय
अर्थात् ज्ञान जिसका निश्चय करता है तथा (3) प्रवृत्ति विषय, अर्थात् ज्ञान प्रवृत्त होकर जिस विषय केा प्राप्त कराता
है। जो ज्ञान निर्विकल्प होते हैं, उनके दो ही प्रकार के विषय होते हैं;
अर्थात् प्रतिभासविषय और प्रवृत्ति विषय। उनका अध्यवसाय
विषय सर्वथा नहीं होता। अर्थात् वे किसी विषय का निश्चय नहीं करते। इसे इस प्रकार
समझा जा सकता है- चक्षुर्विज्ञान का रूप ही प्रतिभास विषय भी होता है और वही
प्रवृत्तिविषय भी। रूप की अनित्यता, कृतकता आदि प्रतिभास विषय तो होते हैं,
किन्तु प्रवृत्तिविषय नहीं। यदि अनित्यता,
कृतकता आदि प्रवृत्तिविषय भी माने जाएंगे तो उनके ज्ञान के
लिए अनुमान का प्रयोग करना व्यर्थ होगा। श्वेत शंख को पीत शंख समझने वाले चक्षुर्विज्ञान
का पीत शंख प्रतिभासविषय भी होता है और प्रवृत्तिविषय भी। किन्तु बाहर स्थित शंख
पीत नहीं होता। इसलिए चक्षुर्विज्ञान भ्रान्त भी होता है। इस प्रकार ज्ञान के
क्षेत्र में निर्विकल्प ज्ञान भी भ्रान्त हुआ करता है।
शब्दसामान्य और अर्थसामान्य सविकल्प ज्ञानों के प्रतिभासविषय होते हैं,
किन्तु वे प्रवृत्तिविषय नहीं होते। प्रवृत्तिविषय तो बाह्य
घट आदि ही होते हैं। अध्यवसायविषय भी वे ही होते हैं। बाह्य घट सविकल्प ज्ञानों के
प्रतिभास विषय नहीं होते, क्योंकि अनावृत घट सविकल्प ज्ञानों में प्रतिभासित नहीं
होता। शब्दसामान्य और अर्थसामान्य वहां आवरण होते हैं। सविकल्प ज्ञान प्रतिभास की
दृष्टि से भले ही भ्रान्त हों, किन्तु प्रवृत्ति और अध्यवसाय की दृष्टि से भ्रान्त नहीं
होते। उनके द्वारा अध्यवसित (निश्चित) विषय में प्रवृत्त होने पर कभी उस विषय की
प्राप्ति भी होती है, अतः वे ज्ञान अविसंवादक भी होते हैं। किन्तु गृहीत का ग्रहण
करने से वे प्रमाण नहीं माने जाते।
इसी तरह अनुमान भी यद्यपि सविकल्पक ज्ञान है और प्रतिभास की दृष्टि से भ्रान्त
भी माना जाता है, किन्तु प्रवृत्ति और अध्यवसाय की दृष्टि से वह भ्रान्त नहीं
होता अपितु अभ्रान्त होता है तथा क्योंकि वह अगृहीत का ग्रहण करता है,
इसलिए प्रमाण भी होता है।
सम्यग् ज्ञान का तात्पर्य अविपरीत ज्ञान से है। वस्तु की जैसी स्थिति है,
वैसा अवबोद्द सम्यग् ज्ञान है। सम्यग् ज्ञान ही अभ्युदय और
निःश्रेयस (मोक्ष) आदि पुरुषार्थ की सिद्धि का मुख्य उपाय है। वह सभी प्रकार से
संशय,
विपरीत या मिथ्या ज्ञानों से रहित होता है। वस्तु के यथार्थ
स्वरूप को जानने की उसमें क्षमता होती है।
(6) प्रमाण ज्ञान- सम्यग् ज्ञान ही प्रमाण होता है। वही ज्ञान अविसंवादक भी होता है।
अवसिंवादकत्व ही प्रामाण्य का नियामक होता है। विसंवाद का अर्थ व॰चना है। जिस
ज्ञान में व॰चना (विसंवाद) का योग होता है, वह ज्ञान विसंवादी कहलाता है। जो विसंवादी नहीं होता,
वह ज्ञान अविसंवादी या अविसंवादक कहा जाता है। कहने का आशय
यह है कि ज्ञान में यदि अपने द्वारा दिखलाई गई वस्तु को प्राप्त कराने की क्षमता
है तो वह ज्ञान व॰चक नहीं होता, अपितु अविसंवादक होता है और वही ज्ञान प्रमाण होता है।
ज्ञान जिस प्रकार वस्तु को देखता है, उसी प्रकार यदि वस्तु की स्थिति है तो यही अविसंवादन है,
इस अविसंवादन का योग होने से ज्ञान अविसंवादी कहलाता है।
जो ज्ञान अपने बल से संशय, विपर्यास आदि का निराकरण करके वस्तु के स्वरूप को जानता हुआ,
उस वस्तु केा प्राप्त कराने में समर्थ होता है,
वही ज्ञान अविसंवादक होता है।
प्रमाण शब्द में ‘प्र’ शब्द का अर्थ प्रथम भी होता है। अर्थात् जो ज्ञान पहले-पहल
वस्तु को जानता है, वह प्रमाण कहलाता हे। अर्थात् किसी पूर्व ज्ञान द्वारा
अगृहीत,
अज्ञात या अप्रकाशित अर्थ (विषय) को जानने वाला ज्ञान ‘प्रमाण’ है। इस प्रकार अगृहीतग्राहिता,
अज्ञातार्थप्रकाशकता या अपूर्वग्राहिता भी प्रमाण का दूसरा
लक्षण है।
वास्तव में ये दोनों लक्षण एक ही वस्तु को कहने की शैली के भेद से है। वस्तुतः
जो ज्ञान अविसंवादी होता है, वह अज्ञात अर्थ का प्रकाशक भी होता है। जो
अज्ञातार्थप्रकाशक होता है, वह अविसंवादक भी होता है।
अलङ्कारभाष्य के रचनाकार प्रज्ञाकर गुप्त के मतानुसार अग्नि,
वायु आदि व्यावहारिक वस्तु को जो ज्ञान ठीक-ठीक जानता है,
वह ‘अविसंवादक’ है। अर्थात् अविसंवादकत्व व्यवहारप्रमाण का लक्षण है तथा
विज्ञप्तिमात्रता या वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप जो अभी तक अज्ञात है,
उसको जानने वाला ज्ञान ‘अज्ञातार्थप्रकाशक’ है। अर्थात् अज्ञातार्थप्रकाशकत्व जो प्रमाण का द्वितीय
लक्षण है, वह ‘परमार्थप्रमाण’ का लक्षण है। वस्तु का स्वरूप दो प्रकार का होता है- एक
व्यावहारिक तथा दूसरा पारमार्थिक। प्रमाण के उक्त दोनों लक्षणों द्वारा वस्तु के
सर्वाङ्गीण स्वरूप का बोध हो जाता है। इसलिए एक ही प्रमाणज्ञान के ये दोनों स्वरूप
होते हैं। बौद्ध नैयायिक ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। अतः इन्द्रियाँ,
जो जड़स्वभाव होती हैं, वे प्रमाण नहीं मानी जातीं। जबकि गौतम और कणाद के अनुयायी
बौद्धेतर नैयायिक इन्द्रियों केा भी प्रमाण मानते हैं। सौत्रान्तिकों का कहना है
कि क्योंकि जड़ वस्तुओं में अर्थबोध का सामथ्र्य नहीं होता,
अतः वे प्रमाण नहीं हो सकतीं तथा ज्ञान ही विषय के आकार से
आकारित हो सकता है, अतः वही प्रमाण हो सकता है, इन्द्रियां नहीं। यदि ज्ञान विषयाकार न हो तो वस्तु ज्ञात
नहीं हो सकती, क्योंकि वस्तु में स्वयं को अभिव्यक्त करने का सामथ्र्य नहीं होता,
नहीं तो ज्ञान के बिना भी उनकी अभिव्यक्ति होने लगेगी।
पुनश्च,
प्रहेय (प्रहाण करने योग्य) धर्मों का प्रहाण करने की तथा
उपादेय (ग्रहण करने योग्य) धर्मों का उपादान (ग्रहण) करने की जो स्वाभाविक
प्रवृत्ति मनुष्यों में होती है, उसका मूल ज्ञान ही होता है। इन्द्रिय होने मात्र से मनुष्य
प्रवृत्त नहीं होते, अपितु ज्ञान होने से प्रवृत्त होते हैं। इसलिए इस प्रवृत्ति
में साधकतम होने से ज्ञान में ही प्रामाण्य स्वीकार करना उचित है। अपि च,
ज्ञानगत आकारों में भिन्नता की वजह से ही विषयों का भेद
व्यवस्थापित होता है, यथा- यह नील है, यह पीत है-इत्यादि। अतः ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिए।
प्रमाण के भेद- बौद्ध नैयायिकों के अनुसार प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो
प्रमाण के भेद होते हैं। सांख्य तीन प्रमाण मानते हैं- प्रत्यक्ष,
अनुमान शब्द और उपमान। उन चार के अलावा अनुपलब्धि के साथ
पांच प्रमाण प्रभाकर के अनुयायी मीमांसक मानते हैं। कुमारिल भट्ट के अनुयायी
मीमांसक अभाव के साथ छह प्रमाण मानते हैं। ऐतिह्य आदि के साथ पौराणिक आठ प्रमाण
मानते हैं।
दो प्रमाण- प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के अधीन है, इस बात केा प्रायः सभी दार्शनिक मानते हैं,
किन्तु बौद्ध दार्शनिक प्रमाण की सिद्धि प्रमेय के अधीन भी
स्वीकार करते हैं। प्रमेय दो प्रकार के होते है, यथा-स्वलक्षण और सामान्य लक्षण। कुछ विषय अर्थक्रिया में
समर्थ होते हैं और कुछ असमर्थ। उनमें जो अर्थक्रियासमर्थ होेते हैं,
वे ही स्वलक्षण तथा जो अर्थक्रियासमर्थ नहीं होते,
वे सामान्यलक्षण होते हैं। इसी तरह जो असाधारण होता है तथा
शब्द का विषय होता, वह स्वलक्षण तथा इसके विपरीत जो साधारण होता है,
शब्द का विषय होता है, वह सामान्यलक्षण होता है। स्वलक्षण और सामान्यलक्षण को
छोड़कर कोई तीसरे प्रकार का विषय नहीं होता, अतः प्रमाण की संख्या भी दो में ही निश्चित है। स्वलक्षण
प्रत्यक्षय पत्र तथा सामान्य लक्षण अनुमान का विषय होता है। बौद्ध दार्शनिक प्रमाण और उसके विषय के बारे
निश्चयवादी होते हैं। प्रत्यक्ष स्वलक्षण को छोड़कर कभी भी सामान्यलक्षण को विषय
नहीं बनाता और न अनुमान भी सामान्यलक्षण को छोड़कर स्वलक्षण को कभी साक्षात् विषय
बनाता है। जब कि नैयायिक-वैशेषिक आदि दार्शनिकों की स्थिति इससे भिन्न है। उनके मत
में प्रत्यक्ष न केवल विशेष (स्वलक्षण) को ही विषय बनाता है,
अपितु सामान्य को भी विषय बनाता है। इतना ही नहीं,
उनके मत में एक ही विषय अनेक प्रमाणों का विषय हो सकता है।
अतः इनके मत में प्रमाण और प्रमेय की नियत व्यवस्था नहीं है। बौद्धो के मत में यह
व्यवस्था निश्चित होती है। फलतः प्रमाणों के विषय में नैयायिक सम्प्लववादी तथा
बौद्ध व्यवस्थावादी होते हैं।
प्रत्यक्षप्रमाण-
यद्यपि
वैभाषिक इन्द्रियों को प्रत्यक्ष मानते हैं, किन्तु बौद्ध नैयायिक उसकी समालोचना करते हैं और
युक्तिपूर्वक ज्ञान की प्रमाणता का प्रतिपादन करते हैं। फलतः जो ज्ञान अर्थाकार
होते हुए कल्पनारहित (कल्पनापोढ) एवं अभ्रान्त होता है,
वह ‘प्रत्यक्ष’ है। शब्द से संसृष्ट होने योग्य प्रतीति ‘कल्पना’ है। प्रत्यक्ष उस प्रकार की कल्पना से विरहित बिलकुल अछूता
होता है।
व्युत्पत्ति- इन्द्रियों पर आश्रित विज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। किन्तु
यह प्रत्यक्ष शब्द का अर्थ केवल शब्द (व्युत्पत्ति) पर आश्रित है। उसका वास्तविक
या पारिभाषिक अर्थ तो ‘अर्थसाक्षात्कारी’ ज्ञान है। फलतः जो ज्ञान कल्पनारहित एवं अभ्रान्त होते हुए
अर्थ का साक्षात्कारी होता है, वह ‘प्रत्यक्ष’ है।
प्रत्यक्ष के भेद
(1) इन्द्रियप्रत्यक्ष- चक्षुष् आदि इन्द्रियों केा अधिपतिप्रत्यय बनाकर जो ज्ञान
कल्पनारहित और अभ्रान्त रूप में उत्पन्न होता है, वह ‘इन्द्रियप्रत्यक्ष’ है। यह पांच प्रकार का होता है,
यथा- नील पीत आदि रूप को विषय (आलम्बन) बनाने वाला
चक्षुर्विज्ञान, शब्दग्राही श्रोत्रविज्ञान, गन्धग्राही घ्राणविज्ञान, रसग्राही जिह्वाविज्ञान तथा स्पर्शग्राही कायविज्ञान। यहाँ
ज्ञान और विषय की निश्चित व्यवस्था होती है। अर्थात् चक्षुर्विज्ञान रूप का ही
ग्रहण करता है। वह कभी भी शब्द का ग्रहण नहीं कर सकता-इत्यादि।
(2) मानस प्रत्यक्ष- इन्द्रियप्रत्यक्षों के अव्यवहित समनन्तर(तत्काल बाद)
मानस-प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। समनन्तर निरुद्ध पूर्ववर्ती इन्द्रियप्रत्यक्ष
उसके समननन्तर प्रत्यय होते हैं और मन इन्द्रिय कहलाये हैं। मन-इन्द्रिय ही इस
मानसप्रत्यक्ष की अधिपतिप्रत्यय होती है। इन्द्रिय-प्रत्यक्षों के ही विषय जो
द्वितीययक्षण में उत्पन्न है, मानस-प्रत्यक्ष के विषय होते हैं। इस मान-प्रत्यक्ष की
अनुभूति पृथग्जनों की सन्तति में नहीं होती। आगम से ही इसके अस्तित्व की जानकारी
होती है। बौद्ध न्याय के सभी ग्रन्थों में इसका निरूपण किया जाता है। पृथग्जन की
सन्तति में होने वाले मानसप्रत्यक्ष की प्रामाणिकता मान्य नहीं है। जितने
इन्द्रियप्रत्यक्ष होते हैं, उनके अनन्तर होने वाला मानसप्रत्यक्ष भी उतनी ही संख्या में
होता है। अर्थात् इन्द्रियप्रत्यक्ष पांच होते हैं। अतः मानसप्रत्यक्ष के भी पांच
भेद माने जाते हैं।
(3) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष- सभी चित्त-चैतसिक याने सभी ज्ञान अपने स्वरूप को स्व्यं जानते हैं। उनका स्वयं
अपने स्वरूप को जानना ‘स्वसंवेदन’ कहलाता है। अपने स्वरूप का साक्षात्कारी होने से,
कल्पनापोढ और अभ्रान्त होने से तथा अतिसंवादक होने से यह ‘स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष’ कहलाता है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के बारे में बौद्धों में
बहुत आपसी वाद-विवाद है। सौत्रान्तिक और विज्ञानवादी (योगाचार) इसकी प्रमाणिकता
स्वीकार करते हैं, जबकि वैभासिक और प्रासङ्गिक माध्यमिक इसे नहीं मानते।
स्वान्त्रितक माध्यमिकों में भावविवेक स्वसंवेदन का खण्डन करते हैं,
किन्तु योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिकों को अपने दर्शन के
स्वभाव के अनुसार इसकी प्रमाणिकता माननी चाहिए, यद्यपि उनके ग्रन्थों में इस बारे में स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध
नहीं है।
(4) योगि-प्रत्यक्ष- शमथ-विपश्यना युगनद्ध समाधि को अधिपतिप्रत्यय बनाकर
आर्यसत्यों का साक्षात्कार करते हुए उत्पन्न आर्यों का ज्ञान जो कल्पनाभेद और
अभ्रान्त होता है, वह ‘योगि-प्रत्यक्ष’ है। यह वस्तु के यथार्थ स्वरूप नैरात्म्य का आलम्बन करता है
तथा समाहित अवस्था में ही उत्पन्न होता है। योग का अर्थ समाधि है,
चित्त की एकाग्रता इसका लक्षण है और वस्तुतत्त्व की
साक्षात्कार कर नेवाली प्रज्ञा भी योग है। यह योग जिसमें होता है,
वह ‘योगी’ कहलाता है। ऐसे योगी का जो ज्ञान होता है,
वह प्रत्यक्ष ही होता है। साòव अथवा लौकिक तथा अनासव अथवा अलौकिक भेद से यह दो प्रकार का
होता है। अभिज्ञा,समापत्ति आदि लौकिक तथा दर्शनमार्ग आदि अलौकिक प्रत्यक्ष है।
अनुमान प्रत्यक्ष-
लिङ्ग (साधन)
के ग्रहण और साध्य-साधन सम्बन्धय (अर्थात व्याप्ति के) स्मरण के पश्चात् उत्पन्न
ज्ञान ‘अनुमान’ कहलाता है। सम्यग् लिङ्ग (कार्य स्वभाव और अनुपलब्धि) से
उत्पन्न परोक्ष -अर्थ-विषयक अविसंवादी ज्ञान ‘अनुमान’ है। अनधिगत वस्तु को विषय बनाने पर वही ‘अनुमान प्रमाण’ होता है।
अनुमान के भेद-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान ये अनुमान के दो भेद है।
जिसके द्वारा व्यक्ति स्वयं परोक्ष अर्थ का ज्ञान करता है,
वह ‘स्वार्थानुमान’ है। परार्थानुमान वचनात्मक होता है। व्याप्ति और
पक्षधर्मतायका कथन करने वाला वचन अनुमान का उत्पादक होता है,
अतः कारण में कार्य का उपचार करके वचन को भी अनुमान कहा
जाता है।
जो ज्ञान कल्पनाभेद और अभ्रान्त नहीं होता, वह ‘प्रत्यक्षाभास’ तथा जो ज्ञान सम्यग् लिङ्ग से उत्पन्न नहीं होता,
वह ‘अनुमानाभास’ कहलाता है।
मार्ग और फलव्यवस्था
श्रावकमार्ग, प्रत्येकबुद्धमार्ग एवं बोधिसत्वमार्ग तथा उन मार्गों से
प्राप्त होने वाले फलों की व्यवस्था सौत्रान्तिक मत में प्रायः वैभाषिकों के समान
ही है। दर्शनमार्ग आदि की अवस्था में उसके विषय चार आर्यसत्य एवं उन सत्यों के
सोलह आकार आदि ही माने जाते हैं। इनसे अतिरिक्त मार्गज्ञान के अन्य विषय नहीं
होते।
मार्ग की दो अवस्थाएं होती हैं,-समाहित अवस्था एवं पृष्ठलब्ध अवस्था। समाहित मार्ग की
अवस्था में मार्गज्ञान के विषय आर्यसत्व एवं नैरात्मय आदि ही होते हैं।
यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि नैरात्म्य तो आत्माभावमात्र है और मार्गज्ञान तो
सत्यविषयक ही होता है तथा सौ़त्रान्तिकों के मतानुसार तो परमार्थ सत्य एकमात्र
स्वलक्षण (वस्तु) ही होता है। नैरात्म्य तो स्वलक्षण-स्वरूप होता नहीं,
अतः नैरात्म्य कैसे मार्गज्ञान का विषय हो सकता है ?
उत्तर-मार्गज्ञान का विषय निश्चय ही पुद्गलारोप के आधार पाँच स्कन्ध ही होेते है। जो
संस्कृत और स्वलक्षण ही होेते हैं। यद्यपि मार्गज्ञान (प्रत्यक्ष) में साक्षात्
प्रतिभास तो पाँच स्कन्धों का ही होता है, किन्तु उसके बल से नैरात्म्य का स्पष्ट अवबोध (परिच्छेद) भी
मार्गज्ञान द्वारा हो जाता है। ज्ञान द्वारा परिच्छेद (अवबोध) दो प्रकार का हुआ
करता है-
एक साक्षात् परिच्छेद तथा उसके बल से होने वाला परिच्छेद।
नैरात्म्य का अवबोध प॰च स्कन्ध के साक्षात परिच्छेद के बल (सामथ्र्य) से ही होता
है। ज्ञात है कि पाँच स्कन्ध ही पुद्गलारोप के आधार होते हैं। अतः पुद्गलाभाव
(पुद्गलनैरात्म्य) के आधार भी वे पाँच स्कन्ध ही होंगे,
अतः उन्हीं में नैरात्म्य भासित होता ह। बोधिसत्व जब
बुद्धत्व प्राप्त कर लेता है, तब उसके स्वरूप एवं कृत्य आदि वैभाषिकों की तरह ही
सौ़त्रान्तिक मत में मान्य है।
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